सबगुरु न्यूज। पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि जब समुद्र मंथन हुआ तब देव और दानव दोनों ही के सामूहिक प्रयास से समुद्र में चौदह रत्न बाहर निकल कर आए और सभी का मुख्य उद्देश्य था कि समुद्र से निकलने वाले अमृत कुंभ से सभी अमृत का पान करके अमर हो जाएं।
समुद्र में से जब विष निकला तो कोई भी उसे ग्रहण करने को तैयार नहीं हुए। विष एक ऐसी गहरी समस्या थी कि यदि कोई उसे ग्रहण ना करे तो वो समस्त सृष्टि को खत्म कर देता। इस समस्या के समाधान के लिए भगवान शंकर ने बीडा उठाया ओर वे विषपान कर गए और नीलकंठ महादेव कहलाए।
समुद्र में से जब अमृत कुंभ निकला तो बस वही राजनीति शुरू हो गई। देव वर्ग ने एकता कर ली थी कि वे हर संभव दानव वर्ग को अमृत का पान नहीं करने देंगे। देवराज इंद्र का पुत्र जंयत अमृत कुंभ को लेकर भागने लगे और देवराज इन्द्र दानव से युद्ध करने लग गए। अमृत कुंभ ले जाते समय जंयत चार स्थानों पर रुके। वहां पर अमृत कुंभ से थोड़ा अमृत छलक गया। वे स्थान थे प्रयाग नासिक उज्जैन और हरिद्वार थे।
सूर्य और चन्द्रमा जयंत की निगरानी कर रहे थे और देवगुरु बृहस्पति जयंत का मार्ग दर्शन कर रहे थे। इन तीनों को ही देवों को ग्रह मान कर इनकी विशिष्ट स्थिति के आधार पर कालांतर में चारों स्थानों पर कुंभ के मेलों के आयोजन करने की परंपरा शुरू हुई जो आज तक चली आ रही है।
राहू नाम के दानव ने जब जयंत का पीछा किया तो वे अमृत कुंभ ले जाते हुए बहुत दूर निकल गए। तब राहू ने सूर्य और चन्द्रमा को कहा इस जगत के तुम दोनों चौकीदार हो इसलिए तुम बताओ कि अमृत कुंभ लेकर जयंत कहा पर गया। सूर्य और चन्द्रमा दोनों ने कुछ नहीं बोला तो राहू ने सदा ही दोनों को निगलने की कसम खा ली और दुनिया में सूर्य ग्रहण व चन्द्र ग्रहण को मानने की परंपरा शुरू हुई।
दैव और दानव के संघर्ष के कारण फिर अमृत कुंभ का बंटवारा हुआ। जैसे ही राहू ने अमृत पिया तो भगवान विष्णु जी ने उसकी गर्दन धड से अलग कर दी। अमृत पान से राहू हो गया और उसका सिर राहू तथा धड केतु कहलाया। जिनका आज भी भौतिक अस्तित्व नहीं है पर धार्मिक मान्यताओं में मौजुद है। राहू केतु की ज्योतिष शास्त्र में भी राहू काल सर्प योग के नाम से भारी मान्यता है।
कथाएं संकेत देती है कि इस जगत में उसी की पूजा सदा बहार होती है जो संकटों का निवारण सहजता से कर दे और जनमानस को हर तरह से सुखी व समृद्ध करे, भले ही खुद संकटों से खेलने का खिलाड़ी बन जाए। ऐसा नहीं की जनमानस हर सुखों से वंचित हो जाए और उनमें विष का बंटवारा कर दिया जाए।
संतजन कहते ंहै कि हे मानव, आज विश्व में अपार समस्याएं विष की तरह फैलती जा रही है और जनमानस को हर क्षेत्र में भारी चुनौती दे रही हैं और मानव एक कठपुतली की तरह मोहताज होता जा रहा है। सभी जानते हैं कि संकट क्या है।दअब इनके निवारण करने वाले की ही आवश्यकता है। बुनियादी आवश्यकता आज भी सर्वत्र अपना विकराल रूप धारण किए हुए खडी है भले ही हम चांद तारों की दुनिया तक पहुंच गए।
इसलिए हे मानव समस्याओं का निवारण करने से ही आनंदित विजय के मार्ग मिलते हैं ना कि समस्याओं की ढूंढी पीट पीटकर और चीखने चिल्लाने से। संकटों का विषपान करने वाला ही सदा विजय का पात्र होता हैं, क्योंकि अमृत कुंभ के बंटवारे में हर कोई भाग ले सकता है और लेकिन विषपान के लिए नहीं।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर