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भुलाना भी जिन्हें मुश्किल

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भुलाना भी जिन्हें मुश्किल

सबगुरु न्यूज। जीवन के कुछ सफर ऐसे होते हैं जिनकी मंजिल आने वाली होती है तो मन में एक तसल्ली आ जाती है और उत्साहित होता हुआ व्यक्ति उस सफर को अलविदा कहने लगता है। तब यादों की परछाईयां उसे घेरने लग जाती है और वह उन यादों में अपने आप को ले जाता है। उन यादों में खोया व्यक्ति दिल से बह रहे नम आंसुओं से उन्हे आखों से ओझल करने लगता है और उनसे विदा लेते हुए अपने आप को ढाढ़स देता है लेकिन सफर में मिले उन चेहरों को भुला नहीं पाता। यादों में मायूसी की वसीयत लिए बार बार अपने आप को धीरज बंधाता है और आखों में आंसू ले उन्हें अपने हाथों से ही सहलाता है।

सफर में साथ रहने वालीं सभी जान और बेजान तस्वीरें भले ही पराई होती हैं पर सफर में साथ रहते रहते वे अपनी जैसे ही लगने लगती है। प्रेम और अपनापन इस कदर बढ़ जाता है कि कोई भी पराया नहीं लगता। दिन, महिने, साल बदलते ही चले जाते हैं और कुछ चले जाते हैं तो कुछ नए आ जाते हैं पर सफर में वे सब एक से ही बन जाते है।

सफर के इन साथियों की एक अलग ही दुनिया कुछ समय के लिए बन जाती है और वहां जाति, वर्ग, समुदाय, आयु, धर्म, भाषा, लिंग जैसी परिभाषाएं नहीं रहतीं हैं और विभिन्नता में एकता की एक सुन्दर तस्वीर नजर आने लगती है।

जिन्दगी जो स्वयं मृत्यु तक का सफर होता है फिर भी वह इस बीच कई सफर करती हुईं व्यक्ति को आबाद या बर्बाद कर जाती है। कोई “सुहाना सफ़र” तो कोई “हम सफर” बन जाता है। बचपन, जवानी, बुढापा, प्रेम, दोस्ती, दुश्मनी, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक आर्थिक तथा मान्यताएं और विश्वास, ज्ञान, भक्ति, कर्म भी जीवन के कई सफर को अपनी यादों की के साथ छोड़ जाती है। इन सभी सफर में से कुछ भूल जाते हैं और कुछ याद रह जाते हैं।

जिन्दगी के सफर यूं गुजर जाते हैं ओर वे मुकाम फिर नहीं आते। व्यक्ति इन सफर को पूरा करता है तो कई लोगों को भुला ना पाता है और कुछ भूल कर भी याद आ जाते हैं। आखिर कुछ भी समझ में नहीं आता और आंखों से आंसू छलक जाते हैं। जीवन के हर सफर की अंतिम सांस इन सब को छोड़ कर अपनी यादें को भी छोड़ ज़ाती है और दुनिया में रह जातीं हैं बस ओर बस स्मृति शेष।

संत जन कहते हैं कि हे मानव, जीवन को हर व्यवहार से गुजरना पड़ता है और इस सफर में सब कुछ पराया होते हुए भी अपना ही जान पड़ता है। बस इसलिए ही दुनिया रोटी, कपड़ा और मकान की सोच से बाहर निकलती हुई चांद तारों तक पहुंच जाती है। अंत में सब कुछ यहीं पर रह जाता है और सफर पूरा हो जाता है।

इसलिए हे मानव, जब सारे ही सफर खत्म होने के लिए ही शुरू होते हैं तो फिर जीवन के अंतिम सफर के लिए ही नहीं वरन् हर सफर के लिए प्रेम की गंगा बहा और नफ़रत को दूर रख। घृणा, नफ़रत, वैमनस्यता, भेद भाव, बैर, बदला ये सब इस सफर के असाध्य रोग हैं जो एक बार घर कर जाते हैं तो वे दिल ओर दिमाग से निकल नहीं पाते और पूरे सफर की यात्रा को दूषित कर देते हैं।

सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर