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अपमान के अमृत से बेहतर है मान का विष

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अपमान के अमृत से बेहतर है मान का विष

सबगुरु न्यूज। रात लम्बी थी सफर दुर्गम था। कुत्ते अंत तक भौंकते रहे ओर बिल्लियां आखिर तक रास्ता काटती रहीं, मानो ऐसा लग रहा था कि इस सफर को सारे मिलकर एक दुर्बल को योजनावद्ध तरीके से महाभारत के महायुद्ध के अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह के युद्ध में फंसाकर मरवाना चाहते थे।

अभिमन्यु तो इस युद्ध में भले ही मारा गया लेकिन वह साज़िशकर्ताओ को यह संदेश दे गया कि इस दुनिया में बेहतर है मान के साथ बिष को पी जाना क्योंकि अपमान के अमृत जीवन भर अपमानित जीवन होने का खिताब दे जाता है।

अपमान का अमृत पीकर भले ही कोई राहू की तरह गरजता रहे और ग्रहण लगाता रहे लेकिन राहू की तरह ना तो उसमें आत्मा होती है और ना ही जमीर क्योंकि उसका सिर ही उसके पास होता है और वह भी अपमान के अमृत पीने से जीवित है। कुछ काल के ग्रहण भले ही दुनिया में अंधेरा फैला दें लेकिन दुनिया में प्रकाश देते हुए सूर्य और चन्द्रमा को सदा कोई भी नहीं ढंक सका।

मान का विष पीना बेहतर होता है क्योंकि वह दुनिया को सिखा देता है कि अपनी हर खुशियां भले ही टूट जाएं लेकिन जगत की हर खुशियां जिंदा रहे और जगत सुखी और समृद्ध बना रहे। जीवन का यही लक्ष्य मान का विष पीने वालों को अमर कर देता है और वह जगत में उस ईश्वर की तरह पूजा जाता है।

धार्मिक साहित्य बताते हैं कि समुद्र मंथन जब देव और दानवों नें मिलकर अमृत के लिए किया तो समुद्र मंथन में सबसे पहले भंयकर विष निकला। उस विष को ग्रहण करने के लिए कोई भी तैयार नहीं हुआ। स्थितियां विकट होने लगी क्योंकि विष सबको खत्म करने वाला था तब भगवान शिव ने विष पीना बेहतर समझा सब के कल्याण के लिए।

भगवान शिव विष को पी गए। उस महारात्रि की महारात में ढेरों अपशगुन के बाद भी जिन्दा रह गए ओर जगत के ईश्वर बन जगदीश कहलाए। समुद्र मंथन में जब अमृत कुंभ निकला तो राहू ने बड़े चालाकी के साथ ओर बिना मान का अमृत पी लिया।

मोहनी रूप धारण किए श्री विष्णु जी ने देखा कि मैने ग़लती से इसे अमृत पान करा दिया तो उन्होंने तुरंत अपना रूप बदला ओर अपने सुदर्शन चक्र से उसकी गर्दन धड से अलग कर दी। अपमान का अमृत पीकर राहू दो भागों में बट गया ओर सिर राहू ओर धड केतु कहलाया। इस अपमान के बिष पीने की कथाएं आज भी जीवित है।

संत जन कहते हैं कि हे मानव, इस संसार में विपदाएं और बाधाएं अमृत पीने वाले की तरह सदा अमर रहतीं हैं और सब को नचवा देती है। कोई मजबूरी वश और कोई जबरदस्ती के साथ इस नृत्य करती रहती है। इन विपदाओं, बाधाओं व संकट पर केवल मान का विष पीने वाला ही खडा हो सकता है और सभी को नचाती हुईं उस विपदा ओर बाधाओं को भी नचाने लग जाता है और खुद नटराज बन जाता है।

इसलिए हे मानव तू अपमान के अमृत का पान मतकर क्योंकि सबको नचाते हुए यह अमृत पान एक दिन धराशायी हो जाएगा जब मान का विष पीने वाला तुझ पर खडा होकर नृत्य करते हुए नटराज बन जाएगा और तेरा अमृत खत्म हो जाएगा।

राहू का अपमानित अमृत तो तो थोड़ा ही अंधेरा कर पाता है लेकिन मान का विषपान करने वाले भगवान शिव सब को खुशियां देकर ऊजाले की तरह सदा ही पूजे जाते और सबको नचाने वालों को वह नचाकर नटराज शिव बन जाते हैं तथा महारात्रि के कल्याण मयी शिव बनकर सम्मान की महाशिवरात्रि मनवाते हैं।

सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर