सबगुरु न्यूज। संस्कृति के ज्ञान का बेबुनियाद लठ्ठ लेकर घूमता हुआ मानव कभी भी किसी को खुशी से जीने नहीं देता है क्योंकि वह संस्कृति को अपने ही दृष्टिकोण से देखता है। जहां मानव समाज है वहां संस्कृति स्वत: ही जन्म ले लेती है और अपनी आवश्यकता के अनुसार फलती फूलती है। सदियों से संस्कृति के विकास की यही कहानी चलती आ रही है।
साधारण शब्दों में कहे तो मानव जहां पर रहता है वह अपने चारों ओर एक सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक माहौल का निर्माण कर लेता है। इस माहौल में ही उसकी परवरिश होती है और वह सांस्कृतिक मानव बन जाता है। अलग अलग स्थानों पर यह माहौल वहां की स्थितियों और परिस्थितियों के अनुसार ही बनता है और संस्कृति का यह अलग अलग तथा व्यापक दर्शन पूरे समग्र को प्रकाशमान करता है।
अपने ही ज्ञान की संस्कृति का चोला ओढ़कर मानव जब दूसरों की संस्कृति पर प्रहार करता है तो वहां सांस्कृतिक विखंडन की एक गंदी प्रकिया शुरू हो जाती है और इस विखंडन में मूल्य, प्रतिमान, व्यवहार, विश्वास, आचार विचार, रहन सहन, खान पान, मान्यता, श्रद्धा, विश्वास सब कुछ आपस में टकरा जाते हैं। सब एक दूसरे पर संस्कृति हीन होने का दावा ठोकते हैं और अपनी-अपनी संस्कृति के ही गुण गान कर समाज और व्यक्ति को खुशी से जीने नहीं देते हैं।
सांस्कृतिक विखंडन के इस महायुद्ध का समझौता फिर धर्म और न्याय नहीं कर पाते हैं। क्योंकि धर्म और न्याय भी अपने कई रूप बनाकर इस महायुद्ध में अपना अलग अलग शंखनाद करने लगते हैं। धर्म और न्याय के इस खेल में फिर श्रीकृष्ण हित वचन नहीं गीता के कर्म उपदेश ही इस महायुद्ध का अंत करते हैं। इन्ही संकटों से जूझता मानव खुशी से जी नहीं सकता क्योंकि महायुद्ध के बाद की सत्ता किसे मिलेगी उसको कोई सरोकार नहीं है क्योंकि वह तो मूलभूत अपनी ही संस्कृति में जीता है।
अपनी मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति मानव स्वंय करता है और अपनी-अपनी संस्कृति में ही अर्जित सुख साधनों से आनंद लेता है, भले ही पांडवो का राज़ हो या कौरवो का। समाज का बहुत बड़ा तबका इस महायुद्ध में झोंक दिया जाता है जिसे कोई परवाह नहीं होतीं कि कौन बादशाह बनेगा। उसे बस राम का राज जैसा होगा बस उसकी ही बूटियां पिलाई जाती है। शेष बचा तबका ही मान सम्मान ओर प्रतिष्ठा के लिए अपने अपने खेमें से संस्कृति के गुणगान कर समाज को बदलने में लगा रहता है और किसी को भी अपनी खुशी से नहीं जीने देता है।
संत जन कहतें हैं कि हे मानव, समझदारों को यह पूरा अधिकार है कि वे मान सम्मान और प्रतिष्ठा के लिए आपस में खूब टकराएं और खुद ही प्रमाणित करते रहें कि सत्य क्या है और अपनें झंडो को गाडते रहे लेकिन दूसरों के अधिकारों की भी रक्षा करें और सबको ख़ुशी से जीने दें।
इसलिए हे मानव, अपने हितों को साधने के लिए दूसरों के कंधों का सहारा भले ही ले पर उन कंधों पर अपनी संस्कृति के रंग मत डाल क्योंकि होली की संस्कृति रंग गुलाल डालने की होती है ना कि अपनी संस्कृति के रंग डाल उसके गुण धर्म बदलने की होती है। अपनी-अपनी संस्कृति में ही सबको रंगा रहने दे ओर ख़ुशी से सबको जीने दे।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर