सबगुरु न्यूज। माया के अखाडे में ज्ञान का दंगल नहीं होता है क्योंकि मायाजाल ज्ञान को बौना कर देता है और मायावी चीख चीखकर ज्ञान का लठ्ठ लेकर खुद को बचाने में लगा रहता है तथा दूसरों की ओर लठ्ठ उछाल उछाल कर फेंकता रहता है ताकि दूसरों को दागदार बनाकर खुद अपनी महिमा का बखान करता रहे। ज्ञान के अखाडो में ही ज्ञान के दंगल हो सकते है जहां मायाजाल का पर्दाफाश हो जाता है और वे ही अखाडे विद्वता के तिलक से नवाजते हैं।
जंगल के राजा शेर और गधे दोनों के ही तिलक लगा दिए जाएं तो वे दोनों ही विद्वान नहीं बन जाते। मायावी मंच पर भले ही शेर दहाडे लेकिन वह अपनी हिंसक प्रवृति नहीं छोडता और गधे पर कितना भी वजन डाल दो तो वह गिर सकता है लेकिन काटता नहीं है। विद्ववता के लिए अलंकरण तो केवल विद्वान व्यक्ति को दिए जाते हैं जानवरों को तो स्वभाव से ही पहचाना जाता है।
विद्वता को तिलक से नहीं आंका जाता और ना ही मायावी अखाडों में ज्ञान की चादर ओढाकर किसी को विद्वान घोषित करके जाना जाता है। ज्ञान का भान तो बुद्धि उसकी भाषा से ही करा देती है और यह साबित कर देती है इन मायावी अखाडों में केवल ज्ञान की मायावी चादरें ही ओढायी जाती है।
मायावी मंच ज्ञान नहीं वरन अपने झंडे बैनर के साथ ही अपने खेल को ही दिखाता है और अपनी ही आवश्यकता अनुसार उसे अपने मूल खेल की ओर ले जाते हैं। दुनिया का कोई भी मंच चाहे वह धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक, वैज्ञानिक अथवा किसी भी विद्या का ही क्यों न हो उसकी हकीकत उसके लक्ष्यों के भेदन के तरीके से ही लग जाती है।
यह साबित हो जाता है कि उनका लक्ष्य भेदन का तरीका सत्य के गुणगान कर रहा है या मायावी चादर ओढाकर अपने गुणों का बखान कर रहा है। शतरंज का खिलाड़ी जब शंतरज के खेल को देख रहा होता है तो वह दोनों खिलाड़ी की चालों को देखकर समझ जाता है कि इस खेल का अंजाम क्या होगा। यह भी पता चल जाता है कि यह खेल विद्वता दिखाने के लिए खेला जा रहा है या केवल शंतरज के खेल की महिमा दिखाने के लिए आयोजित किया जा रहा है।
संत जन कहते हैं कि हे मानव, तिलक चाहे शेर के लगाएं या गधे के, दोनों ही विद्वान् नहीं होते और किसी पर विद्वता थोपकर उसे तिलक लगाने पर भी वह विद्वान् नहीं होता। विद्वता का भान तो ज्ञान के अखाडों में होता है, माया के मंच पर तो केवल ज्ञान की चादरें डाल दी जाती है।
इसलिए हे मानव, तेरे पास चौहदह मनोवृत्ति के अलावा पन्द्रहवीं मनोवृत्ति संस्कृति होती है और वह तुझे पशु समाज से अलग करती है। इस संस्कृति को सीखा जाता है। केवल संस्कृति की चादर ओढ़कर ही विद्वता नहीं आती।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर