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hindu mythology stories by joganiya dham pushkar-आत्मा के उजाले में भटकते मन की सोच - Sabguru News
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आत्मा के उजाले में भटकते मन की सोच

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आत्मा के उजाले में भटकते मन की सोच

सबगुरु न्यूज। मन मनोवृत्तियों में उलझा रहता है इस कारण इसका नियंत्रण हमारे पास नहीं होता है। यह शरीर तथा प्राण वायु रूपी ऊर्जा जिसे आत्मा कहा जाता है उसका सम्मिलित उत्पाद होता है इसलिए वह केवल सोचता है और सोच सोचकर कभी परम्परा में कभी मौलिकता में तो कभी आस्था और श्रद्धा तथा कभी धर्म में और कभी विज्ञान में खो जाता है।

मनोवृत्तियो के कारण इस पर शरीर नियंत्रण नहीं रख पाता है और यह अपनी चाहत के नियंत्रक के अधीन हो जाता है। इसलिए मन के मत की सोच के अनुसार नहीं वरन जो दिख रहा है उस ऊजाले में अपने आप को प्रवेश कराओ और देखो की मन की उछल कूद क्या है और मौलिकता क्या है। ऊजाले अंधकार से दूर ले जाते हैं और सोच केवल कल्पना के चित्र ही बनाती रहती है। अगर ऐसा नहीं होता तो झूठ असंख्य नहीं बनती और सत्य एक ही नहीं रहता।

आत्मा विज्ञान है जो शरीर को जिन्दा रखती हैं केवल जिन्दा रहने के दर्शन की सोच नहीं रखती। मन चूंकि चलायमान है एक सोच का व्यापारी है और जहां मुनाफा देखता है तो उसी में खो जाता है और कभी परम्परावादी और कभी विज्ञान की शरण में खो जाता है इस कारण उसका हर बार नियंत्रक बदल जाता है।

आत्मा रोशनी है जो बहुत कुछ आगे का रास्ता दिखा देती है और मन सोच है जो कर्म की क्रियान्विति पर सोचती ही रहती है और इस अंधेरों में से ऊजालो की ओर जब बढ़ती है तो पहले भूतकाल को साधने लग जाती है।

मन मनोवृत्तियों के कारण भगवान की स्वतंत्र सत्ता मानता रहता है जबकि आत्मा स्वयं प्रकाश मान और प्राण वायु रूपी ऊर्जा के रूप में शरीर के तंत्र विज्ञान से जुड़ी होती है। यह सभी श्रद्धा और आस्था से दूर रहती है। आत्मा धड़क कर अपने अस्तित्व का बोध कराती रहती है पर मन के भगवान केवल सोच तक ही सीमित रह जाते हैं। केवल परम्परा ही उनकी उपस्थिति का भान करवाती है जो कभी किसी की सोच रही होगी। मन स्वतंत्र रूप में भगवान को साक्षात नहीं कर पाता है।

संतजन कहते हैं कि हे मानव, ये मन बार बार अपनी और दूसरों की आत्मा को कोसता रहता है तथा रोज उसे पानी देता रहता है कि तू मेरे लिए मरे हुए के समान है। मन यहां परम्परा की बात करता है जो किसी सोच का अंजाम था। महात्मा मौतम बुद्ध दार्शनिक नहीं दृष्टा थे तथा वह सिद्धांतों पर नहीं वह व्यावहारिकता पर आधारित थे। उनका मानना है कि मानव और मानव कल्याण के ऊजाले ही धर्म है और सही मायने में यही भगवान है।

जीवन जीने की कला में व्यवहारिकता का होना ही जरूरी है ना कि वर्ण और आश्रम व्यवस्था के सिद्धांतों का। जीवन को सिद्धांतों की जटिलता में उलझने के स्थान पर मध्यम मार्ग को ही अपनाना श्रेष्ठ माना। आत्मा के ऊजाले में वह भटकते मन को यह संदेश दे गए कि हे मानव पूर्ण सिद्धान्त वादी का सिद्धांत भी आपातकाल में टूट जाता है।

शरीर के अस्वस्थ होने पर कई परम्परांए टूट जाती है इसलिए हठधर्मी बन कर और लठठ लेकर घूमते रहना सब कुछ धरा रह जाता है जब कृत्रिम जीवन दायक यंत्रों के सहारे जीवन को बचाना जरूरी हो जाता है।

इसलिए हे मानव यह पूर्णिमा है जो ज्ञान की जोत जला दूरस्थ दृष्टि को दिखाकर भावी जीवन के मार्ग तय कर देती है। महात्मा गौतम बुद्ध इसी दिन समझ गए थे कि शरीर रूपी वीणा को संतुलित बनाए रखना ही सत्य है। यदि इसके तार ज्यादा खींच दिए तो तार टूट कर शरीर को बेसुध कर देंगे और ढीले भी छोड़ दिए तो इससे स्वर नहीं निकलेंगे

इसलिए मध्यम मार्ग को अपनाते हुए जीवन को खुले ढंग से जीने दो। मन मनोवृत्तियों का गुलाम होता है इसलिए मध्यम मार्ग से ही इसे मनोवृत्तियां पूरी करने दो क्योंकि यह हर नियंत्रण से बाहर है। कुछ भी नहीं करेगा तो भी यह अपने आप को कल्पना के सागर में गोते लगवाता ही रहेगा। बुद्ध पूर्णिमा पर हार्दिक मंगलकामनाएं।

सौजन्य : ज्योतिषचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर