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मिथ्या के गलियारों की शाम जब ढलने लगी

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मिथ्या के गलियारों की शाम जब ढलने लगी

सबगुरु न्यूज। जीवन की शाशवत धारा और मूल्यों के विपरीत असत्य की दुनियां में जब व्यक्ति अपनी कद काठी को बढाने लग जाता है तो उसके जीवन की शाम मिथ्या के गलियारों में ही ढल जाती है तथा दूर से शाम की दुल्हन उसे देखती, निहारती मुस्कराती है और कहती है कि हे मुसाफिर तूने यह क्या कर डाला। हकीकत की रातों को क्यो गंवा डाला। अब फरेबी रातें तुझे अपने मायाजाल में फंसाए रखेंगी तथा तेरी नींद को बेच तुझे ओजगो में खोये रखेगी।

मिथ्या के गलियारे में यथार्थ लहुलुहान होकर पीडा झेलता रहता है और ज्ञान कुबुद्धि पर सवार होकर बेबस हो जाता है। कुबुद्धि ज्ञान को जकडकर मिथ्या भाषणों के बिना पाल के सरोवर में डाल देती है। बिना पाल का सरोवर जिसमें पानी नजर नहीं आता लेकिन मन उसमें कूद कूद कर नहाता रहता है।

विधाता ने शायद पीठ हमेशा धोखा देने और धोखा खाने के बनाई है ताकि दिल में कपट ओर बगल में छुरी रख कर कोई भी व्यक्ति अपना मनमाना व्यवहार कर थोड़ा खुश हो सके। अविद्या और अज्ञान का लठैत बन व्यक्ति जब अहंकार में डूब अंधेरे में लठ चलाता है तथा साजिश के फूल बांटता है तब उसे उपहार में घृणा के कांटे मिलते हैं। इन कांटों को वह अपनी पीढ़ी में धकेल देता है व आने वाली पीढ़ियों को झूठे गलियारे में भटकने को मजबूर कर देता है।

श्रेष्ठ विश्लेषक बनने की अज्ञानी चादर को ओढकर कर विषहीन सांप की तरह फुफकार के झाड़े लगाकर अपने को लोभ की मैली चादर ओढाकर राज़ी होता है। मिथ्या की परछाईयां जब बढ़ती जाती हैं तब शाम की दुल्हन अंधेरे में प्रवेश कर उन परछाईयों का अंत कर देती है।

जमीनी हकीकत की यही कहानी होती है जहां हर कोई ज्ञान और उपदेश, आदर्श का पिटारा लेकर दूसरों को बांटता फिरता है तथा ख़ुद अहंकार व अंधकार में डूबा रहता है। वर्तमान को कलयुग मान हम अपने आप को सतयुगी समझने का दावा पेशकर अपने अन्दर के मानव को ग़लत दिशा में धकेल देते हैं। वर्तमान राम को रावण समझ बैठते हैं जबकि रावण तो अपने अन्दर बैठी एक ग़लत सोच है जो समाज, संस्कृति, धर्म, दर्शन, अर्थ, कला और मानवता को कलंकित कर उसके टुकड़े करती है।

संत जन कहते हैं कि हे मानव, मिथ्या के गलियारों को भले ही किसी भी रंग से रंग दो वे रंग हकीकत की शाम होते होते ढल जाते हैं। निश्चित रूप से जीवन मिथ्या का एक सुदर गलियारा है क्योंकि मौत उसकी हकीकत है, लेकिन इस मिथ्या के जीवन को हकीकत के पक्के रंगों से ही रंगना यथार्थ है ओर वे रंग दुनिया को मार्ग दिखलाते हैं। मिथ्या के गलियारे गुमराह कर जाते है। इसलिए हे मानव, ज्ञान का भान तो अपनी कद काठी के अनुरूप अपने दायित्ंवो को निभाने पर ही मालूम पडता है।

सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर