सबगुरु न्यूज। नक्षत्र का अर्थ है न हिलने वाला न चलने वाला। अनन्त आकाश में असंख्य चमकीले तारे हैं। तारा समूह विभिन्न आकृतियों में नजर आते हैं। इन्हें हम नक्षत्र के रूप में जानते हैं। इन अंसख्य तारों में कुछ तारे बहुत चमकीले नजर आते हैं जिन्हे आकृति की पहचान देकर सत्ताइस नक्षत्र के रूप में जानते हैं।
सम्पूर्ण आकाश वृत जिसे हम भचक्र के नाम से जानते हैं। यह पश्चिम से पूर्व की ओर तीस तीस डिग्री के बारह भागों में बांटा गया है। प्रत्येक भाग में स्थित विशेष तारा समूहों से उस नक्षत्र की पहचान की जाती है। इन सत्ताईस तारों में आर्द्रा नक्षत्र मिथुन राशि में पाया जाता है।
आर्द्रा नक्षत्र तीक्ष्ण नक्षत्र होता है। इस का अधिपति ग्रह राहू होता है तथा अधिपति देवता शिव होते हैं। इस आर्द्रा नक्षत्र में उपद्रव, मंत्र, प्रयोग, अभिचार, भूत प्रेत आदि की सिद्धि, फूट डालना, घन संग्रह करना आदि कर्म को करने की मान्यता है। यह सुलोचना नक्षत्र होता है जो पूर्ण रूप से कार्य सिद्ध करनी की क्षमता रखता है। ऐसी मान्यता व विश्वास धार्मिक ग्रंथों तथा ज्योतिष शास्त्र की है।
सूर्य अपनी धुरी पर भ्रमण करता हुआ जब इस नक्षत्र के सामने से गुज़रने लगता हैं तब तक अपनी अत्यधिक गर्मी धरती पर बढाकर धरती को तपाने लग जाता है तथा वाद प्रतिवाद के सिद्धांत के कारण पानी को भांप में बदल बादल बनाकर उसमें वर्षा रूपी गर्भ ठहरा देता है।
आर्द्रा नक्षत्र में सूर्य प्रवेश के साथ ही पृथ्वी पर ऋतु परिवर्तन की शुरुआत के कारण सूर्य तेरह या चौहदह दिन तक आर्द्रा नक्षत्र के सामने से गुजरता हुआ अत्यधिक गर्म हुई धरती को जल से तृप्त कर देता है और धरती को स्नान करा पानी से नदी नाले और खड्डों को भर देता है। आर्द्रा नक्षत्र में स्नान कर धरती फिर अपनी वर्षा ऋतु का श्रृंगार कर हरी भरी होकर सावन के झूले झूलती है।
पृथ्वी स्वयं प्रकृति है और आर्द्रा नक्षत्र का अधिपति देव शिव को माना गया है। सूर्य इस शिव के नक्षत्र में भ्रमण कर वर्षा के माध्यम से इस प्रकृति और पुरूष का मिलन करा धरती को छक कर स्नान कराता है। इस मिलन से धरती हरी भरी होकर आनंद में रहती हुई सब को आनंदित कर देता है।
असम के नीलगिरी पर्वत पर स्थित शक्ति का प्रतीक मां कामाख्यां की शक्ति पीठ पर इस नक्षत्र का महत्व माना गया है। सूर्य के आर्द्रा नक्षत्र में प्रवेश के तीन दिन तक मंदिर के पट बंद होते हैं तथा बंद होने से पूर्व योनि रूपी इस मंदिर के कुंड में सफेद वस्त्र रख दिया जाता है। तीन दिन बाद यह वस्त्र लाल हो जाता है इस कुंड में। इसके बाद शक्ति को स्नान करा मंदिर को दर्शन के लिए खोला जाता है तथा योनि रूपी कुंड में गीले हुए कपड़े को प्रसाद के रूप में बाटा जाता है।
तीनों ही दिन में लाखों तांत्रिक अपनी रूचि के अनुसार ही आर्द्रा नक्षत्र के महत्व को जानकर तंत्र साधना व सिद्धि में लगे रहते हैं। यह सारा उत्सव अम्बुवाची पर्व के रूप में जाना जाता है। हर वर्ष आर्द्रा नक्षत्र से इस मेला उत्सव का आयोजन होता है।
पौराणिक कथाओं में बताया गया है कि जगत पिता ब्रह्मा जी के मानस पुत्र दक्ष प्रजापति के यज्ञ में उनकी पुत्री सती ने देह त्याग कर दक्ष का यज्ञ भंग कर दिया था। अपने पति शिव के अपमान के कारण। शिव ने दक्ष प्रजापति का सिर काट दिया तथा मृत सती के शरीर को लेकर घूम रहे थे और विलाप कर रहे थे। भगवान विष्णु जी ने अपने सुदर्शन चक्र से सती की मृत देह के टुकड़े कर दिए। उन टुकड़ों में सती का योनि भाग इस नीलगिरी पर्वत पर गिरा ओर वहीं शिव ने भी अपने शरीर का एक मांस का टुकड़ा कांट उस अंग की रक्षा के लिए छोड़ दिया। सती की योनि का यह स्थान ही कामाखया के नाम से स्थापित हुआ तथा वहां शिव के मांस का टुकड़ा उमांनद भैरव कहलाया है।
संतजन कहते हैं कि हे मानव, पुरूष के रूप में सूर्य आर्द्रा नक्षत्र में प्रवेश कर तपती हुई प्रकृति रूपी धरती को बादलो के जल से स्नान कराकर वर्षा ऋतु का आगाज़ करता है। प्रकृति और पुरूष का यही मिलन आनंदित होकर सावन के झूले झूलने के लिए बढता है और धरती हरी भरी हो जाती है।
इसलिए हे मानव, धार्मिक मान्यताएं इस आकाश के नक्षत्र आर्द्रा के साथ जुडी हुई हैं जो यह संदेश देती हैं कि हे मानव ऋतु परिवर्तन हो चुका है और अब धरती नहा रही है, अत: इसमें बीजारोपण कर ओर नई फसल के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर। इस शक्ति से सिद्धि के रूप में तूझे उत्पादन मिलेगा और उससे तेरे सारे कार्य सफल हो जाएंगे।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर