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सर्द ऋतु की सियासत और एक ताजा गजल - Sabguru News
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सर्द ऋतु की सियासत और एक ताजा गजल

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सर्द ऋतु की सियासत और एक ताजा गजल

सबगुरु न्यूज। कुदरत का नाम आते ही हम उस अदृश्य शक्ति के अदृश्य देव के बारे में सोचने लग जाते हैं जिसने तमाम ब्रह्मांड और उसमें व्यापत सजीव, निर्जीव आदि सभी की रचना कर अपनी ही सियासत से वह नवनिर्माण करती हैं साथ ही विध्वंस भी करती है।

वह तमाम कुदरत को अपनी ही विचारधारा से संचालित करती हैं। सजीव चाहकर भी इसकी सियासत को अपनी सियासत के अधीन नहीं कर पाया है। अगर सजीव ऐसा कर सकता तो फिर मानव या सजीव ही भाग्य विधाता बन जाता और वह चाहता तो भरी दुपहरी को रात बनाकर उसमें चांद तारों को दिखा देता।

सियासत जिसे मानव ने अंधेरों में रहने वाली और बिना वस्त्र धारण करने वाली की तरह परिभाषित किया है, जो उजाले में नहीं देखी जाती है। ऊजाले में तो वह केवल अपना सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव बताकर सर्वत्र अपनी छाप छोड़ती है। इसी के कारण कही पर तो शादीयाने बजवाकर बहारों की तरह फूल बरसाती है तो कहीं पर मातमी धुन पर तराने गाती हुईं रंजोगम के दुखों की श्रद्धांजलि अर्पित करती है।

ठीक इसी तरह मानवी सियासत भी दिखाई नहीं देती है, केवल उसके परिणाम ही दिखते हैं जो हर तरह की सत्ता को चाहे वह राजनीतिक हो या फिर सामाजिक क्षेत्र की या आर्थिक और धार्मिक ही क्यों न हो।

कुदरत अपनी सियासत वक्त के पांसे डालकर करती है और हर बार एक ताजा गजल ऋतुओं के माध्यम से प्रस्तुत करती हैं और यही ऋतुएं अपने गुण धर्मों के अनुसार प्रकृति की हर व्यवस्था को संतुलित रखती है तथा मानव को यह संदेश देती है कि हे मानव, तेरी सियासत को भी तू श्रेष्ठ ढंग से कर ताकि सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक, राजनैतिक आदि सभी सत्ताएं संतुलित रहें, अन्यथा तेरी सियासत फिर अंधेरों में ही नहीं ऊजालों में आकर अपनी हैसियत के भेद खोल देगी।

दुनिया के हस्तक्षेप से दूर प्रकृति की अपनी प्रधानता रही है और इसी के कारण प्रकृति अपनी लीला को अंजाम देती है और मानव अपने अनुसार उसे व्यावहारिक जीवन में उतारता हुआ हर काल के भाग का नामकरण करता हुआ एक श्रेष्ठ व्यवस्था को अपनी सभ्यता व संस्कृति के अनुसार लागू करने की कवायद करता है।

पृथ्वी पर प्रत्यक्ष रूप से पडने वाले सूर्य और चन्द्रमा के प्रभावों को देख समाज में एक कार्य योजना का खाका तैयार करता है। उसी अनुरूप कार्य को अंजाम देने का प्रयास करता है। आकाश का प्रमुख तारा सूर्य जो स्वयं प्रकाशमान है, आकाश के अन्य ग्रह नक्षत्रों को रोशनी देता है जिसे हम आत्मा का कारक मानते हैं जो ऊर्जा का विशाल पिंड है।

वह अपनी धुरी पर भ्रमण करता हुआ जब उतर दिशा की ओर रूख़ करता है तो उसके मार्ग में मुख्य रूप से धनु राशि का तारा मंडल पडता है। उस तारामंडल में एक नक्षत्र “मूल” आता है। प्राचीन ॠषि मुनियों ने ऐसा महसूस किया है कि यहां आत्म कारक सूर्य अपनी तेज़ ऊर्जा के बावजूद भी अपना गर्म प्रभाव पृथ्वी के कुछ हिस्सों पर नहीं डाल पाता और जीव व जगत को ठंड से प्रभावित होना पडता है। लेकिन जैसे ही वह आगे बढता जाता है तो उसकी ऊर्जा का पुन: ज्यादा प्रभाव पडने लग जाता है।

सूर्य की अपने यात्रा में धनु राशि से 241° शुरू हो जाती हैं और 270° तक यह धनु राशि रहती हैं उसके बाद मकर राशि का तारामंडल प्रारंभ हो जाता है। इस धनु राशि का क्षेत्र प्राचीन ऋषि मुनियों ने आकाश के एक ग्रह बृहस्पति का माना गया है। इस ग्रह को ज्योतिष शास्त्र मे ज्ञान और बुद्धि का प्रमुख ग्रह माना जाता है। यह आकाश तत्व व सत गुणी माना जाता है।

सूर्य को ज्योतिष शास्त्र मे आत्मा का ग्रह माना जाता है और इन्हीं मान्यताओं को ध्यान में रखते हुए ज्योतिष शास्त्र यह निर्देश देता है कि ज्ञान में आत्मा खो जाती है और सूर्य की ऊर्जा यहां की पचंडता पर वृहस्पति ग्रह का प्रभाव ज्यादा पडता है। केतु के नक्षत्र मूल में सूर्य के प्रवेश से ही मल मास शुरू हो जाता है अर्थात धनु राशि के मूल नक्षत्र से सूर्य की ऊर्जा अप्रभावी हो जाती है तथा सभी मांगलिक कार्य रोक दिए जाते है और मकर राशि में सूर्य के प्रवेश तक इन्तज़ार किया जाता है।

जहां ज्योतिष शास्त्र को नहीं माना जाता है वहां लगातार मांगलिक कार्य होते रहते हैं। वहां सूर्य को सदा ही ऊर्जावान मानकर निस्संकोच विवाह आदि कार्यों को किया जाता है।

संत जन कहते हैं कि हे मानव, प्रकृति की व्यवस्था को हर सभ्यता ओर संस्कृति तथा धर्म ने अपने अपने अनुसार मानकर कार्य को अंजाम दिय़ा हैं लेकिन प्रकृति की संस्कृति अपनी ही है। सूर्य का अपना यात्रा पथ मौसम व ऋतु परिवर्तन करता है लेकिन संस्कृति उसे अपनी मान्यता देकर अपने अनुसार कार्य करती हैं।

इसलिए सर्वत्र मांगलिक कार्यों पर निषेध नहीं होता। इसलिए हे मानव, तू अपने मन को मजबूत रख और मन व विचारों में तालमेल बैठाकर उचित अवसर का लाभ ग्रहण कर, जिस वक्त भी जो मिल जाए क्योंकि मल मास तो एक ज्योतिष शास्त्र की मान्यता है प्रकृति का नियम नहीं और ना ही इसे प्रकृति ने माना। प्रकृति अपने ही सिद्धांतों पर कार्य करती है न कि मानवीय सिद्धांतों पर।

सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर