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कर्म फल और ज्योतिष सिद्धांत - Sabguru News
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कर्म फल और ज्योतिष सिद्धांत

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कर्म फल और ज्योतिष सिद्धांत

सबगुरु न्यूज। राजा परीक्षित ने अकारण ही साधना में लीन एक ऋषि को जवाब न देने के कारण उसके गले में एक मृत सांप डाल दिया। यह दृश्य जब ऋषि पुत्र ने देखा तो राजा परीक्षित को श्राप दिया कि आज के सातवें दिन बाद यही सर्प तुम्हे डस कर मृत्यु देगा। स्थिति को नाजुक देख एक सात मंजिला भवन की छत पर राजा को अपने वफादार मित्र के साथ छोड़ दिया गया।

भागवत महापुराण का पाठ भी शुरू करवा दिया। वहा पर सभी के आने जाने मे रोक लगा दी गई। सातवें दिन सर्प तक्षक व उसके कुल वाले साधु बनकर आए और राजा को आशीर्वाद देने की जिद करते रहे लेकिन नहीं जाने देने पर वे आशीर्वाद रूपी फल राजा तक पहुंचवाने के लिए दे गए। फल राजा के पास पहुंचवा दिए गए।

सन्ध्या के समय श्राप के समय को जाता देख, राजा ने वे फल काटा तो उसमे से एक कीड़ा निकला। राजा ने श्राप पूरा करने के लिए उस कीड़े को गले से लगा लिया और इतने में उस कीडे ने तक्षक नाग का रूप धारण कर राजा परीक्षित को डस कर मौत के घाट उतार दिया। महाभागवत की कथा भी समाप्त हो गई।

वेदव्यास जी से परीक्षित पुत्र कहते है जो “जनमेजय” के नाम से प्रसिद्ध हुए। हे ऋषिवर मेरे पिता ने कभी अधर्म नहीं किया फिर भी एक छोटे से कर्म के लिए उन्हें मृत्यु दंड मिला और भागवत महापुराण करवाने के बाद भी उनकी आत्मा भटक रही है और आप कह रहे हैं कि अब देवी भागवत महापुराण अर्थात अम्बा यज्ञ कराने से ही उनका मोक्ष होगा।

जनमेजय कहते हैं कि ऋषिवर हमारे पूर्वजो ने साक्षात श्रीकृष्ण के सान्निध्य में सृष्टि के प्रमुख वास्तु विशेषज्ञ विश्वकर्मा जी के द्वारा इन्द्रप्रस्थ नगरी का निर्माण कराया तथा शुद्ध धन, मन, वचन और कर्म से गृह प्रवेश करवाया फिर भी थोडे दिनों बाद जुआ खेलने में सब कुछ खत्म हो गया, सभी को महान दुख झेलने पडे।

क्या यही कर्म फल ज्योतिष, वास्तु व यज्ञ अनुष्ठान के सिद्धांतों पर भारी पडते हैं, वेद व्यास जी कहते हैं पुत्र, ये जगत जननी आद्य शक्ति के सब खेल है, वो प्रपंच रचने वाली है महाशक्ति है, वो ही सब खेल खेलती है। इन सबको जाने दो तथा परीक्षित की मुक्ति के लिए देवी भागवत महापुराण अम्बा यज्ञ करवाओ।

जनमेजय के कहने पर वेदव्यास जी ने अम्बा यज्ञ करवा राजा परीक्षित को स्वर्ग मे स्थान दिलाया। संत जन कहते हैं कि हे मानव, हम एक ही ज्ञान को भारी समझते हैं जबकि प्रकृति के खेल को प्रारब्ध, संचित ओर क्रियामान के पर मानकर भी कर्म और ज्ञान का क्षेत्र अधूरा रह जाता है। इसलिए हे मानव, वर्तमान मे जिस भी कार्य करने से लाभ मिलता है उससे लाभ लेना ही उचित है।

सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर