सबगुरु न्यूज। संत तो परम हितकारी होते हैं वह अपना नहीं इस जगत का कल्याण करने के लिए ही जन्म लेते हैं और भाव भक्ति के बीज उस बंज़र भूमि में बोते हैं जहां पर कोई दूसरा खेती भी करे तो उसे गांठ का ही हासिल चुकाना पड़ता है। उस जमी को संत अपने निर्मल भाव से सींचता है और उसमें संतोष रूपी अन्न को ऊपजाता है।
व्यक्ति ओर समाज को वह लकड़ी की तरह सहायता देता है तथा मन की उछलकूद ओर मैं मैं करने के अवगुण को मिटा कर उसे अपने समान ही बना लेता है इस कारण संत को पारस पत्थर से भी करोड़ों गुणा माना जाता है।
पारस पत्थर के लिए कहा जाता है कि वह जिस भी लोहे को छू लेता है उसे सोना बना देता है चाहे वह लोहा कैसा भी क्यो ना हो अर्थात पारस लोहे को सोना बना कर कीमती तो बना देता है लेकिन वह अपने जैसा नहीं बना सकता।
पारस पत्थर लोहे की नगरी को स्वर्ण नगरी बनाकर माया का विस्तार कर देता है और मानव उस माया के संसार में वाणी की निर्मलता मन के संतोष और सहारा देने की भावना को छोड़कर अंहकारी मन का निर्माण कर संतों के मार्ग से हट जाता है फिर वह यह उम्मीद करता है कि संत मेरे अनुसार ही कार्य करे। मुस्कुराता हुआ संत कुछ नहीं बोलता है और एक दिन जब सोने की नगरी जल जातीं हैं तो संत कहते है कि हे मानव धरे रह गये बलवान जो इस धरती को हिलाने की क्षमता रखते थे।
मायावी मन वाला व्यक्ति जब संतों के चोले धारण कर लेता है तो छल कपट कर सीता के हरण करने जैसा कृत्य करता हुआ वह अपने वर्चस्व को दिखलाता है और अपने कुनबे का ही विरोधी बन जाता है तथा उस कुनबे से अपने आप को मुक्त करता हुआ व्यक्ति विभिषण बनकर फिर उस मायावी का जो संतों का चोला धारण कर छल कपट करता है उसका अंत संतों के आशीर्वाद से ही करवा देता है। संतजन कहते हैं कि हे मानव, सच्चे संत तो ना अपने होते हैं और ना ही परायो के। वे तो सदा ही समदर्शी और सभी के लिए परम हितकारी होते हैं।
भगवान शिव से एक समय पार्वती कहती है कि हे नाथ तुम इस मायावी संसार में मुझ महामाया के साथ बैठै हो फिर भी संतों की तरह सदा ध्यान में क्यों रहते हो, तब भगवान शिव कहते हैं कि हे पार्वती सृष्टि काल में माया की ही प्रधानता होती है इस कारण मै भले ही मायावी संसार ओर महामाया के साथ बैठा हूं लेकिन मै सदा आत्मा रूपी ब्रह्म के ध्यान में रहता हूं क्योंकि सृष्टि प्रलय में ब्रह्म की ही प्रधानता होती है। इस कारण हे पार्वती देव दानव और मानव तथा समस्त जीवों के कल्याण के लिए मै सदा तत्पर रहता हूं।
इसलिए हे मानव तू भले ही संत की संगत कर या मत कर। माया के भले ही लिपटा रह, पर तू अपनी “आत्मा” को संत समझ जो तेरे लिए सदा ही परम हितकारी है और इस आत्मा के अस्तित्व के कारण तेरे शरीर को रथ बनाकर यह मन इस जीवन की यात्रा करता है और जगत मे तू अपना कर्म करता है। इस आत्मा को संत समझने पर ही तेरी वाणी में नीर की तरह खूब शीतलता बरसेगी ओर तू संतोष रूपी अन्न सबको बाट कर सबका सहारा बनेगा और मन बकरे की तरह हर बार मैं मै की वाणी छोड़ कर मीठी मधुरी वाणी बोल कर तेरी संस्कृति का परिचय कराएगा।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर