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कलयुग में मित्रता का कृष्ण-सुदामा चरित्र बदलने लगा - Sabguru News
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कलयुग में मित्रता का कृष्ण-सुदामा चरित्र बदलने लगा

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कलयुग में मित्रता का कृष्ण-सुदामा चरित्र बदलने लगा

सबगुरु न्यूज। श्रीकृष्ण और सुदामा की मित्रता में स्वार्थ नहीं अपनापन था। बिना अपना हित साधे भगवान श्रीकृष्ण ने सुदामा को अपनी बराबरी का दर्जा दिया। मुट्ठी भर चावल की भेंट सुदामा देने में झिझक इसलिए रहा था कि यह तुच्छ भेंट श्रीकृष्ण के लायक नहीं है, लेकिन कृष्ण समझ गए कि सुदामा झिझक रहा है। उन्होंने अपनी भेंट सुदामा से ली ओर प्रेम से खाने लगे। श्रीकृष्ण बोले, हे सुदामा जो आनंद मुझे छप्पन भोग नहीं दे पाए उससे कहीं ज्यादा आनंद तेरी चाहत के इन मित्रता के चावल ने दे दिए हैं। अमीरी और गरीबी, राजा और रंक जैसी परिभाषा को कृष्ण ने सुदामा की मित्रता के सामने धराशायी कर डाली और मित्रता का मूल्य स्थापित किया।

श्रीकृष्ण द्वापर युग में महा शक्तिमान, बलवान, धनवान, सफल राजनीतिज्ञ तथा सफलतम कूटनीतिज्ञ थे। उन्होंने ना केवल अपने मित्रों को वरन अपने विरोधियों को भी नीति के विषय में बताया तथा कर्म के सिद्धांतों का उपदेश दिया। उनके बचपन के मित्र सुदामा को जब गरीबी से जूझते हुए देखा तो वह अपने मित्र के गले लग गए। उन्हें अपने राज सिंहासन पर बैठा कर उनका दिल से स्वागत किया तथा उसे धनवान बना दिया।

मित्र धर्म क्या होता है इसकी मिसाल द्वापर युग में छोडी थी। कृष्ण और सुदामा की मित्रता की यह कहानी आज भी हृदय को छूती हैं लेकिन कलयुग में सुदामा और कृष्ण का चरित्र अब बदल गया है और हर सुदामा ही कृष्ण को नवाजता है भले ही उसके घर में अन्न का दाना नहीं हो ओर घरवालों की जीर्ण शीर्ण स्थिति ही क्यो न हो।

कलयुग का सुदामा अपनी मित्रता निभाने के लिए भले ही अपनी जमीन मकान जेवर जो नहीं के बराबर होते हैं उन्हे बेचकर या कर्जा लेकर अपनी मित्रता को बनाए रखता है, क्योंकि इस भारी कलयुग में वह कृष्ण जैसे महारथियों को अपनी पीठ बनाए रखता है ताकि इस दुनिया में उसका वर्चस्व बना रहे और वह भी अकड़ कर चल सके की मैं कृष्ण का मित्र हूं। कलयुग का सुदामा थोथी शान में अपने कई हितों को साधने की कवायद में लग जाता है और मित्रता के भाव को व्यापार करने में बदलने लग जाता है। कलयुग के कृष्ण के सामने इसी तरह के सुदामा का महत्व अब बाकी रह गया है।

कलयुग का कृष्ण अब द्वापर के श्रीकृष्ण के कर्म सिद्धांतों को अपनी तरह परिभाषित कर कहता है कि कर्म कर और फल उठा, वह फल उठाने के लिए हर हथकडे अपना लेता है। किसी को अपने धनबल से, किसी को बाहुबल और किसी को अपने नाम के प्रभाव से डरा भमका कर और सब कुछ लेकर भी अपने गरीब मित्र सुदामा की हौसला अफजाई करता रहता है। वह जमाने को संदेश देता है कि यह मेरा अजीज मित्र है और आज का सुदामा भी इस पुरस्कार को अमृत फल की तरह अपने पास रख कर सब को दिखलाता है।

संतजन कहते हैं कि हे मानव, कलयुग में अब कृष्ण सुदामा की मित्रता का चरित्र बदल गया है। गरीब मित्र को देखकर अमीर मित्र उसकी अनदेखी कर देगा और कैसे भी गरीब मित्र यदि अमीर मित्र से सहायता की बात करेगा तो अमीर मित्र खुद के सुदामा होने की कहानियां सुनाने लग जाएगा। हां, यदि ग़रीब मित्र के पास कोई उसके काम की चीज होंगी तो उसे हडपने के लिए वह गरीब को अपना अजीज मित्र कहकर उसे अपना कहते हुए उस चीज़ को हडपने लग जाएगा और गरीब मित्र को अपने जाल में फंसा लेगा। जगत के व्यवहार में अब यही पाया जाता है कि अमीर और शक्तिशाली मित्र बिना अपने स्वार्थ के गरीब से मित्रता नहीं करता और ना ही उसकी शान में कसीदे काढता है भले ही कुछ अपवाद हो।

इसलिए हे मानव, तू खुद अपने कर्म का मित्र बन और अपनी बुनियादी ज़रूरत की पूर्ति के लिए मन से आवश्यक श्रम कर और स्वार्थ साधने वालो की मित्रता से बच। तू खुद को ही इतना बुलंद बना ताकि तेरी शान में कसीदे खुद जमाना काढे और तू गर्व से अपने कर्म और श्रम को ही अपना मित्र कह सके अन्यथा तेरा इस्तेमाल कर तेरी सहायता करने वाला व्यक्ति तेरा मित्र नहीं केवल व्यापारी ही कहलाएगा।

सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर