सबगुरु न्यूज। कलह सामाजिक संरचना में उत्पन्न होने वाला एक महत्वपूर्ण सामाजिक तथ्य है जो जन्मजात मनोवृत्तियों से जुडा हुआ है। सात्विक, राजसी और तामसिक समेत कोई भी स्वभाव इससे बचा हुआ नहीं है। इसकी उत्पति अहंकार से होती है और यह कलह अहंकार को विराट रूप में ले जाकर अंत में काल के रूप में स्थापित कर देती है। कलह का यह काल रूप सबसे पहले क्रोध को जन्म देता है और क्रोध अपनी सीमा पार कर उस व्यवहार को जन्म देता है जहां व्यक्ति अपने आप, घर परिवार, समाज से सबको संघर्ष की ओर धकेल देता है तथा सर्वत्र कलह का माहौल बन जाता है।
अहंकार से जन्मी कलह अपनी ही स्वार्थ सिद्धि, अस्तित्व को बचाने या अपने अधिकारों पर अतिक्रमण होने से अथवा अपने अधिकारों की मर्यादा लांघने के कारण सर्वत्र कलह, लडाई, झगड़े का माहौल बना देती है चाहे वह सामाजिक या आर्थिक सत्ता हो या राजनीतिक सत्ता हो या फिर करिशमाई सत्ता हो।
कलहकारी वातावरण फिर अपना प्रकट रूप दिखा संगठित और असंगठित विरोध धरना प्रदर्शन व आन्दोलन को जन्म देता हुआ परिवार, समाज और सर्वत्र वयवस्थाओं के विकास की नीति तथा योजनाओं का दुश्मन बन जाता है। कलह के महायुद्ध में आत्मा रूपी कृष्ण मौन हो जाते हैं। मन स्वयं अपने स्वार्थों से रचे ज्ञान का बखान करता हुआ मरने और मारने पर उतारू हो जाने का उपदेश देता है।
मन के यही उपदेश मूल ज्ञान से विरोध कर उस कलह में समस्त मर्यादा को तोड़ केवल अपने को ही कर्म करने के लिए उपदेश देता है। अर्जुन बना हुआ मन फिर आत्मा रूपी कृष्ण को नकार देता है और अपने ही उस कर्म को जारी करता हुआ कलह सिर्फ बस कलह की ओर बढता हुआ अपनी ही कलह का विजय का शंखनाद करता है।
कलह घर परिवार में शुरू होती है तो वह उस घर में ही राज करती हुईं अपनी अराकता फैला कर उस घर का विकास रोक देती है तथा सम्बन्धों में दरार पैदा कर आपसी प्रेम को दूषित करते हुए सबको मतिभ्रम की ओर डाल देती है। इस कलह के पीछे केवल आपत्ति जनक स्थितियों को छोड़ कर सामान्यत अहंकार, हठ, ज़िद, मैं आदि ही कारण होते हैं। यह छोटे छोटे कारण ही घर परिवारों को तोड़ देते हैं।
इस माहौल को दूषित करने में व्यक्ति स्वयं तथा कुछ जलनशील स्वभाव वाले जो घरों में अनावश्यक हस्तक्षेप गुपचुप रूप से या हितैषी बनकर शकुनि की चाले चल देते हैं। यही स्थितियां परिवार समाज और व्यवस्थाओ में घुस कर उस घर परिवार और समाज के विकास के दुश्मन बन जाते हैं।
संतजन कहते है कि हे मानव, कलह जो अहंकार से पैदा हुई है उसे समय रहते ही समाप्त कर देनी चाहिए अन्यथा यह विकास को पंगु बना कर उसे आगे बढने के लिए मोहताज कर देती हैं और विकास फिर कहीं का भी हो या किसी भी क्षेत्र का हो वह रूक जाता है और लडखडाते हुए ही आगे बढता है।
इसलिए हे मानव, अपने घर, परिवार में छायी अनावश्यक कलह को बाहर निकाल कर फेंक भले ही तुझे अपनी कद काठी को छोटा दिखाना पडे। कद काठी तो अपने रंग रूप में तभी निखार लाती है जब कलहकारी हवाएं तेरे विकास के चमन को झुलसाए नहीं। अन्यथा घर रूपी गुलशन उजड़ जाएगा और कलह तुझे रोता हुआ देख कर आनंद का लुफ्त उठाएगी।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर