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सत्ता संघर्ष की तस्वीर तब से अब तक

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सत्ता संघर्ष की तस्वीर तब से अब तक

सबगुरु न्यूज। यह सृष्टि जगत किसने उत्पन्न की, कैसे उत्पन्न की और क्यो उत्पन्न की, सृष्टिकर्ता कौन था आदि विषय में कई मत अलग-अलग धार्मिक ग्रंथों में दिए गए हैं। हर ग्रंथ में एक शक्ति विशेष को ही सृष्टि का सृजन करने वाला बताया गया है। इस कारण सृष्टि उत्पन्न करने वाली मूल शक्ति के बारे में प्रारंभिक स्तर पर ही अलग अलग विचारधाराएं उत्पन्न हो गईं और इस कारण अलग-अलग शक्तियों ने अपने अलग-अलग तरीके से सृष्टि का सृजन किया।

सृष्टि सृजन की अलग अलग विचारधाराओं के कारण सृष्टिकर्ता के अलग अलग रूप हो गए व उनके निर्माण की सृष्टि के प्राणियों के भगवान और आराध्य देव तथा उनकी हर तरह की सोच के नजरिये भी बदल गए। इस कारण प्रारंभिक स्तर पर ही धर्म, दर्शन, चिंतन, समाज, आर्थिक, राजनैतिक तथा वैज्ञानिक सोच आदि भी अलग अलग तस्वीरों में नजर आने लगे। इन अलग-अलग तस्वीरों की सोच के समूहों ने अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए अपने अलग-अलग कुनबे बना लिए और विचार धारा ने प्रतिस्पर्धा करते हुए शनैः शनैः संघर्ष का रूप धारण कर लिया।

इस विचारधारा में मूल सृष्टिकर्ता ईश्वरीय शक्ति के रूप में स्त्री शक्ति को प्रकृति को उत्पन्न करने वाली देवी तथा पुरूष रूप में त्रिदेवों के रूप में अस्तित्व को स्वीकारा गया। इन शक्तियों में आस्था रखने वाले समाजों का निर्माण हुआ। सभी समाज शक्ति सम्पन्न बनने के लिए अपनी-अपनी ईश्वरीय शक्तियों की आराधना लग गए और उस शक्ति के माध्यम से प्रकृति की रचना पर अपना आधिपत्य जमाने के लिए संघर्ष करने लगे।

इसी संघर्ष में देव और दानव दो नाम उभर कर सामने आए। सत्ता पर पहली बार जिन्हें त्रिदेवों ने बैठा दिया वे सब देव कहलाए और इनका विरोध करने वाले तथा सत्ता छीनने वाले दानव कहलाए। इन देव और दानवों की ईश्वरीय शक्तियां भी इन चार मूल शक्ति के आराधना और विश्वास की ही थी। इन सबका मूल भी एक ही कुनबा था पर सत्ता के संघर्ष में ये देव और दानव दो नाम उभर कर सामने आए।

काल चक्र के इतिहास में देव सम्मानित दृष्टि से तथा दानव अपमानित दृष्टि से देखे जाने लगे। हर शक्ति सम्पन्न देव और दानव स्वर्ग के राज सिंहासन पर राज करते रहे। कथाओं के अनुसार देव व दानव दोनों ही समाजों ने हर क्षेत्र में चहुमुखी विकास किया। दोनों ही समाज में रिश्ते नाते और संबंधों को भारी महत्व दिया जाता था। स्त्रियों की प्रधानता दोनों ही समाजों में प्रमुख थी। धर्म, दर्शन, चिंतन और शिक्षा की उन्नत स्थिति थी। विज्ञान की उन्नति चरम सीमा पर थी।

राजनीति, कूटनीति, छल, कपट का स्तर दोनों ही समाजों में भरा था। सत्ता संधर्ष में सब कुछ जायज मान लिया जाता था। पाप और अपराध करके प्रायश्चित करने का चलन था।

त्रिदेवों के संघर्ष ने तीन महाशक्ति के रूप में अपना वर्चस्व स्थापित किया। इसके बाद शक्ति बल पर सत्ता स्थापित करने का खेल शुरू हुआ जिनका अनुमोदन त्रिदेवों की शक्तियों ने किया। सृष्टि के प्रारंभिक काल का एक ही कुनबा सत्ता के लिए बंट गया। समय-समय पर अपने बलबूते से सत्ता पर काबिज होते गए।

अंत मे अपने बलबूते से सत्ता पर एक ही कुनबा काबिज हो गया तो शक्ति ने व्यवस्था बदलते हुए श्रेष्ठ कार्य कलापों के आधार पर एक व्यक्ति को सत्ता पर चयन करके निश्चित समय के लिए बैठा दिया और उसकी पुनरावृत्ति नहीं होने दी। सत्ता के सहयोग मे एक स्थायी व्यवस्था कार्य के संचालन के रूप मे कर दी ताकि सत्ताधारी के अभाव में भी व्यवस्था कार्यो का सुचारु रूप से संचालन कर सके।

यह सब एक सत्ता और व्यवस्था के रूप में आ गया तथा वर्तमान का हिस्सा बन गया। वर्तमान ने इस व्यवस्था में चयन की पुनरावृत्ति को स्वीकारा गया व शक्ति की बनाईं व्यवस्था में परिवर्तन हो गया तथा सत्ता सघर्ष का एक नया रूप प्रकट हो गया।

संत जन कहते हैं कि हे मानव सत्ता और संघर्ष की यह कहानियां तो काल चक्र बदलता रहेगा पर मानव और जीव व जगत का कल्याण करने वाली ही सत्ता सदा याद रखी जाती है। शरीर में विराजने वाली आत्मा जो प्राण वायु रुपी ऊर्जा कहलाती है वह शक्ति के रूप में शरीर का साम्राज्य मन को सौंप देती है। उसका संचालन करता हुआ मन सकारात्मक सोच से दैव और नकारात्मक सोच से दानव बन जाता है। इस शरीरधारी के नाम का उत्थान और पतन करता रहता है। इस कारण वह प्रसिद्ध और बदनाम हो जाता है।

इसलिए हे मानव तू नकारात्मक सोच से इस शरीरधारी के नाम को बदनाम मत होने दे। सकारात्मक सोच से हर व्यवस्थाओ के मूल्यों को बनाए रख ओर जगत में असली प्रसिद्धि के पुरस्कार प्राप्त कर।

सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर