सबगुरु न्यूज। जिन्दगी उन मेलों की तरह होती है जिसके दिन निश्चित होते हैं। मेले की तयशुदा सीमा हमें ज्ञात होती है लेकिन जिन्दगी का मेला कब तक चलेंगे इस का अंदाजा हमें नहीं लगता। ज़िन्दगी खुद एक भारी और विहंगम मेला होती है। इस मेले में आनंद के झूलों के साथ ही बहुत से झमेले होते हैं।
मेले अपनी खूबसूरत यादें को छोड़ जाते हैं तो वहीं उम्र भर का गम छोड़ जाते हैं। कोई मुस्करा जाता है तो कोई बिखर जाता है। आस्था और श्रद्धा इन मेलों में भगवान ढूंढ़ती है तो मस्तीला अपनी मस्ती में मस्त हो जाता है। कोई बहुत कुछ खो देता है तो कोई सब कुछ पा लेता है।
ज़िन्दगी खुद मेला होतीं हैं ओर दुनिया के इन मेलों में रम जाती है और एक दिन रमते रमते जिन्दगी के मेले तो खत्म हो जाते हैं लेकिन दुनिया का मेले चलते रहते हैं। दुनिया के मेले ज़िन्दगी को संदेश देते हैं कि हे ज़िन्दगी मेरी कोई उम्र नहीं होती ओर ना ही किसी से कोई परहेज करती हूं। मेरा जन्म सभी को निभाने का होता है और मैं सभी को उसके ही अनुरूप परोसती हूं।
हे ज़िन्दगी तू नादान है। मेरे मेले को भी अपने झमेले में डाल देती है और तू सब को अलग अलग रंगों से रंग देती है। मैं सभी की जरूरतों को पूरा करने के लिए आती हूं और तू अपनी जरूरतों को पूरा कर चलीं जाती हैं। इसलिए एक दिन तू सदा के लिए चली जाएगी और मैं सदा बहार बन अपनी संस्कृति को बनाए रखती हूं। भले ही कोई मेरी संस्कृति को कोई कितना भी छीलता रहे, खुर्द बुर्द कर मिटाता रहे या बांटता रहे। मैं अपना नाम नहीं बदलती हूं। सदियों से आज तक मुझे दुनिया का मेला ही कहा जाता है।
संत जन कहते हैं कि हे मानव मेले संस्कृतियों का संगम करते हैं और भौतिक और अभौतिक संस्कृति को जिन्दा रखते हैं। विभिन्नता में एकता के धागे बांधते हुए हम की भावना का बीजारोपण करते हैं।
इसलिए हे मानव ज़िन्दगी के मेले को यू ही खत्म मत होने दे और जब तक ये मेले हैं इन्हें ज्यादा झमेले में मत डाल। विभिन्नता मे एकता के धागे पिरोकर “मै” की प्रसाद को त्याग और प्रेम के हीरे मोती बिखरा।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर