सबगुरु न्यूज। प्रकृति अपनी नीति में बंटवारे को प्रमुखता देकर अपने प्राकृतिक न्याय सिद्धांत को लागू करती है और इस आधार पर मानव सभ्यता व संस्कृति के लिए एक आदर्श रूप को स्थापित कर संकेत देती है कि हे मानव तू प्रकृति के न्याय सिद्धांत के अनुसार ही अपने निर्णय कर।
अपने विवेक के आधार पर किए गए निर्णय से प्राकृतिक न्याय सिद्धांत के साथ छेड़छाड़ ही होगी जो मानव सभ्यता ओर संस्कृति के मूल भूत ढांचे को गिरा कर आदिम युग की ओर ले जाएगी जहां अवैधता की संस्कृति को ही वैध ठहरा कर उस मानव में संस्कृति नाम की मनोवृत्ति को खत्म कर देगी और समाज ओर उसकी संस्थाए अपनी अंतिम विदाई लेगी।
समाज और संस्थाओं की विदाई के बाद फिर मानवीय न्याय प्रणाली की आवश्यकता ही नहीं होगी तथा मानव समाज और पशु समाज का अंतर ही समाप्त हो जाएगा क्योंकि संस्कृति ही मानव समाज को पशु समाज से भिन्न करती है।
झुलसाती हुई गर्मी को प्रचंड तूफानी बरसात दूर कर देती हैं ना कि शीतकाल गर्मी को दूर करने के लिए पहले से ही आ जाता है। अगर ऐसा होता तो यह शीत काल का यह निर्णय प्राकृतिक न्याय सिद्धांत के विपरीत ही होता और ऋतुओ पर एक अतिक्रमण होता। शीतकाल को उसके अपने अधिकारों मे वृद्धि की इजाजत कभी भी प्राकृतिक न्याय सिद्धांत नहीं देते हैं और प्रकृति की व्यवस्था बनी रहती है।
प्रचंड गर्मी को तूफानी वर्षा शांत नहीं कर पाती है तो शरद ऋतु को वो अपना उत्तराधिकार दे कर गुलाबी हल्की ठंड को आमंत्रित करती है और गर्मी की कसर को शरद ऋतु पूरा करने के लिए महारास में आमंत्रित करतीं हैं। प्रकृति के इस महारास में गर्मी शनै शनै शांत हो कर अचेतन होकर अपनी सुध बुध खो बैठती है। शरद की पूर्णता की चांदनी आखिरी बार महारास का आयोजन कर गर्मी की हस्ती मिटा देती है और इस महारास के श्रम को ठंडी खीर का पान करा उसे विदा कर देती हैं।
शरद ऋतु के महारास में मन अचेतन होता हुआ ठंडी खीर रूपी सर्दी का पान कर अंदर की गर्मी को भी विदा कर देता है। प्रकृति अपनी नीति से यह बंटवारा करती हुई अपने न्याय सिद्धांत को जीवित रखती है और अधिकार पर अतिक्रमण अपनी रचना पर नहीं होने देती।
संत जन कहते हैं कि हे मानव, ये शरद ऋतु अब अपने परवान पर चढ़ने लगी है और मानव को निर्देशित कर रही है कि झुलसाती हुई गर्मी ओर तूफानी वर्षा से जो शारीरिक और मानसिक शक्ति जो असंतुलित हुई है अब उसे शरद ऋतु से संतुलित कर ओर शक्ति का अर्जन कर क्योंकि ये ऋतु मृत्युतुल्य कष्टों को आमंत्रित करती है।
इसलिए हे मानव तू प्रकृति के न्याय सिद्धांत की रक्षा कर और मनमाने ढंग से प्रकृति के अनमोल मानव रत्न तथा उसके समाज की संस्कृति के खिलाफ फैसला मत कर। अपनी शक्ति का दुरुपयोग मत कर नहीं तो शरीर शक्ति का संचय नहीं कर सकेगा तथा आने वाला ऋतु काल शरीर को ध्वसत कर जाएगा।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर