सबगुरु न्यूज। कर्म के अखाडे में निष्ठा आस्था और भावनाओं का कोई स्थान नहीं होता है क्योंकि कर्म का फल उसके चयन के मार्ग में ही निहित होता है। भावनाएं कर्म के चयन के फल को नहीं बदल सकती हैं। कर्म के चयन से लगी आग तो जलाने का ही काम करेगी भले ही भावनाएं आंसू बहाकर रोती रहें और अपने निष्ठा की दुहाई देती रहें।
महाभारत का महायुद्ध कर्म के चयन का ही परिणाम था जो प्रत्येक को अपने कर्म के चयन का ही परिणाम देकर चला गया। भीष्म पितामह ने जिस कर्म को चुना वो अपने राजा के प्रति एक भारी निष्ठा ही थी और उनकी इसी निष्ठा ने राजा, राज्य और अपने आप को हार के मुंह में डाल दिया। भले ही भीष्म पितामह की भावनाएं त्याग, तपस्या व सार्थक प्रयास महाभारत का महायुद्ध नहीं चाहते थे।
निष्ठा, भावनाओं और सार्थक प्रयास के खेल में वो अधर्म के साथ ही जुडे रहे और धर्म उस महाबलवान के सामने रोता रहा गिडगिडाता रहा और असहाय होकर अपनी लाज बचाने के लिए मदद मांगता रहा। उनकी निष्ठा ने भावनाओं ने चाहकर भी उस कर्म के मार्ग का चयन नहीं करने दिया जहां महाभारत का महायुद्ध टाला जा सके।
उस महायुद्ध मे भी वो अधर्म के महा सेनापति बन धर्म को अपने बाणों से लगातार घायल करते रहे और उस अकेले अभिमन्यु को चक्रव्यूह में फंसा कर मारते रहे तथा भावनाओं के आंसू बहाते रहे। पांडवों ने भी उसी कर्म चयन के फल से भीष्म पितामह को मार डाला और बाद में वो भावना के आंसू बहाते रहे तथा प्रायश्चित करते रहे।
संत जन कहते हैं कि हे मानव भावनाओं और निष्ठाओं के भावनात्मक खेल से किए गए कर्म के फल बदल नहीं सकते। उन कर्मो के फल तो अपना अस्तित्व बनाए रखते हैं और अपना काम करते रहते हैं भले ही अधर्म अपना बलवान रूप क्यो ना बना ले।
इसलिए हे मानव भावनाओं के खेल से कर्म के अखाडे अपना फल नहीं बदलते वो तो कर्म के चयन का ही परिणाम देते हैं। इसलिए कर्म के चयन के मार्ग को सावधान हो कर चुन।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर