सबगुरु न्यूज। बीन की धुन, माहौल में ऐसी सरसराहट पैदा कर देतीं हैं कि सुनने वाले एकदम सहम जाते हैं और चारों तरफ देखने लग जाते हैं कि अब सांप, अपने को भूल कर बीन की धुन मे बैबस हो जाएगा और बीन बजाने वाला उसे अपने झोले में डाल कर ले जाएगा।
सांप अपने फुफकारने की संस्कृति नहीं छोडता है तो बीन की धुन भी सांप को मोहित करने की संस्कृति नहीं भूलतीं। जब दोनों का आमना सामना होता है तो बीन की धुन ही शनै शनै सांप पर भारी पडने लग जाती है और सांप अपनी सुध बुध खो बैठता है। बस यही पर सांप का आत्म समर्पण हो जाता है है और बीन की यादगार जीत हो जाती है।
यही जमीनी हकीकत होती हैं जब कोई बीन बजाने वाला सांपों के डेरों में घुस जाता है तो सभी सांप फनफना कर फुफकारने लग जाते हैं और बीन बजाने वाले को अपनी संस्कृति का भान कराने के लिए उसे डंसना चाहते हैं, तब बीन बजाने वाला भी बीन की धुन से अपनी संस्कृति को याद दिलाता हुआ उन सांपों को नचाने लग जाता है।
जब धुन बीन की होती है तो तराने नागिन के गाये जाते हैं और महफिल में बजते शादीयाने और सेहरे के सुर बदल जाते हैं और सारा माहौल नागिन की धुन सुन कर बैबस हो जाता है। उस नागिन के गीतों में एक दर्द छुपा रहता है जिसमें नागिन अपने दर्द को बयां करती हैं और अपने लक्ष्य की ओर बढने से पूर्व ही वह बीन की धुन मे प्रेम रस सुनकर अपनी सुध बुध खो बैठती है तथा बदला लेने के अपने लक्ष्य को जाता देख अपनी हार पर बैबसी के आंसू बहाती है।
संत जन कहते हैं कि हे मानव जब मन रूपी सांप अपनी फुफकार से सर्वत्र विष के प्रभाव फैलाने लग जाता है और मानव सभ्यता ओर संस्कृति को अपने ही पाठ पढाने लग जाता है तो तमाम सभ्यता व संस्कृति उस जहर से झुलसने लग जाती हैं। यह स्थिति देख कर आत्मा रूपी बुद्धि बीन की धुन बजाकर मन रूपी सांप को मोहित करके उसकी फुफकार को बंद कर उसे बैबस बना उस सांप की संस्कृति पर अपनी संस्कृति का लेप लगा कर उसे मानव कल्याण के लिबास ढक देती है।
इसलिए हे मानव तू जन कल्याण के उस जागरण को अपनी परिभाषा में छोटा मत बना और ना ही उसके पथ का उद्देश्य तय कर, कारण इस विशाल भू भाग पर तेरा अस्तित्व बहुत छोटा है और सभी अपनी अपनी मान्यताओं के धर्म कर्म के अनुसार ही व्यवहार करते हैं व अपने अपने तरीकों से ही कल्याण के मार्ग तैयार करते हैं।
सौजन्य : भंवरलाल