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बिखरी हुई माला के कुचले हुए फूल - Sabguru News
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बिखरी हुई माला के कुचले हुए फूल

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बिखरी हुई माला के कुचले हुए फूल

सबगुरु न्यूज। वह फूलों का चमन खुशहाल था जिसको कुदरत ने पैदा किया। कुछ रंगों से और कुछ ख़ुशबूओ से। कुछ सुंदर तो कुछ सुंदर नहीं माने जाने वाले इन फूलों को विधाता ने अपने अपने गुणों से भरकर अपनी विरासत जीव और जगत को उपहार में दी। जहां चंदन की खुशबू ने सब को महकाया और सर्पों को अपने लिपटाए रखा। रोयडे के पेड से दीमक जैसे कीटों को आने नहीं दिया। जहां फलों के राजा आम ने धूम मचाई तो कैर ने भी रोगों से निजात के लिए अपना वर्चस्व स्थापित करने में कसर न छोड़ी।

नीम ने कीटाणुओं से मुक्त किया तो कंटीले पौधों ने शत्रुओं का उच्चाटन किया। जहां वेदों ने मंत्र गाए तो आगम शास्त्र में तंत्रों ने धूम मचाई। आस्था और विश्वास में जहां करोडों देव पूजे वहां कर्म की प्रधानता को ही ईश्वर माना। कुदरत ने अपने ज्ञान के अखाडे में मानव को तराशा तो भक्ति ने भगवान को जमीन पर उतारा।

विभिन्नता में एकता की यह सुदंर माला प्रकृति ने पिरोई तो स्वार्थ ने इन सब को हवा बनकर, पेड़ों को रगड़ा कर जंगल में आग लगाई। इस आग से यह गुलशन झुलसता गया और माला के धागे कमजोर होकर टूटने लगे। कुदरत की माला के सभी फूल बिखर गए।

शक्तिशाली बन कर घृणा ने इन फूलों में से सभी कीमती फूल चुन लिए और बाकी फूल कुचल कर नफ़रत को गले लगा लिया और समूचे गुलशन को उजाड़ दिया। कुदरत ने अपना खेल नहीं बदला और सदा प्रकृति को गुलशन बनाने मे कोई कसर नहीं छोड़ी। घृणा और नफ़रत ने भी अपना खेल ज़ारी रखा और अपनी बादशाहत बरकरार रखने के लिए प्रकृति की विरासत माला को तोड तोडकर बाकी फूलों को पांवों तले दबा दिया।

घृणा और नफ़रत के खेल में कुचले फूलों का भी एक भारी भरकम ढेर लग गया ओर वह फूल सडकर खाद बनते रहे। उस खाद को भी शक्तिमान ने नहीं बख्शा ओर फिर उसे अपने खेत में डाल पांवों तले कुचलते रहे। शक्तिमान के पांवों तले कुचलते कुचलते ये प्रकृति की माला के तोडे गए फूल, अपना अस्तित्व खो बैठे ओर दया के लिए भीख मांगते रहे।

यह कहानी नहीं है। यह सभ्यता और संस्कृति की जुबानी है। जो सदियों से उस नक्कार खाने में गायी जाती है जहां तूतियों की आवाज सुनाई नहीं देती और उन तूतियों को विद्रोह के स्वर मान कर उन्हें फिर कुचल दिया जाता है और उसे गद्दार करार दिया जाता है।

संत जन कहते हैं कि हे मानव यह खेल सदियों से चला आ रहा है और चलता ही रहेगा लेकिन प्रकृति अपनी विरासत मे कमी नही आने देंगी, भले ही माला के फ़ूल तोड कर कुचल दिए जाएं। मानव सभ्यता और संस्कृति में भौतिक द्वंदवाद सदा होता आया है। इसलिए हे मानव तू इन फूलों को पांवों तले कुचल कर नफ़रत को गले लगा मत लगा और प्रकृति की इस विरासत के फूलों को भले ही तेरी माला से हटा, मगर इसे कुचल मत ताकि वैमनस्यता की खाई नहीं बढे और सर्वत्र शांति का साम्राज्य स्थापित हो।

सौजन्य : भंवरलाल