सबगुरु न्यूज। ज्ञान का लठ लेकर घूमता हुआ मानव प्रकृति की विरासत की संस्कृति को जब अपने ही आईने से देखता है तो उसे एक अनावश्यक संघर्ष करना पड़ता है क्योंकि वह केवल लघु संस्कृति का ही पक्षधर बना रहता है, वृहतसंस्कृति के स्वरूप को भूल जाता है।
जब ज्ञान, भाषा और संस्कृति को जब अपने ही ज्ञान के आधार पर थोपा जाता है तो समाज की संस्कृति में भारी विचलन आने लगता है और ये विचलन बढता बढ़ता उस खाई को गहरा बना देता है तथा विभिन्नता में एकता पर ग्रहण लगता जाता है।
प्राचीन सभ्यता और संस्कृति के मूल्यों को वर्तमान आईने से देख उस पर जब चिराग जलाए जाते हैं तो उस उजाले में मानव की कद काठी और उसकी संस्कृति ही नजर आतीं हैं, लेकिन उस काल का आईना नजर नहीं आता। इन ऊजालों में दिखे अवशेषों को जब तक उन आईनो से नहीं देखा जाता है तब तक ज्ञान का लठ लेकर घूमता हुआ मानव विनाश की संस्कृति के ही दीपक जलाकर अनावश्यक संघर्ष की आग ही जलाता रहेगा।
अपने घर में संस्कृति का अंधेरा रखकर तथा अज्ञान का दीपक जलाकर दूसरे के घर की संस्कृति को जब प्रकाशित किया जाता है तो उस संस्कृति में केवल विरोध ही नजर आता है और उस विरोध में एक व्यक्ति नहीं सम्पूर्ण समाज जलता हुआ नज़र आता है।
संत जन कहते हैं कि हे मानव जब तू स्वयं अंधेरे में रहता है और दूसरों के घर के अंधेरों में दीपक जलाने की बात करता है तो उसमें तू कभी भी सफल नहीं हो सकता। इसलिए हे मानव तू पहले अपने घर को रोशन कर और फिर तू दूसरों के घरों में दीपक जलाने की बात कर।
सौजन्य : भंवरलाल