सबगुरु नयूज। विज्ञान के इस युग में भले ही मान्यताएं, शकुन, तंत्र मंत्र, टोटको को एक अंधविश्वास ही माना जाता है लेकिन आज भी यह सब पूरे विश्व में सदियों से विद्यमान हैं। आस्था और विश्वास इन्हें आज तक भी जीवित बनाए हुए हैं।
होली पर्व बनाए जाने की कई मान्यताएं हमारी संस्कृति में विद्यमान है। इन मान्यताओं में भविष्य पुराण में एक कथा मिलती है। युधिष्ठिर श्री कृष्ण से पूछते हैं कि फागुन मास की पूर्णिमा के दिन ग्राम ग्राम और नगरों में उत्सव क्यों मनाते हैं? होली क्यों जलाई जाती है?
श्री कृष्ण बोले हे यदि युधिष्ठिर सत्य युग में रघु नाम का सत्यवादी, जितेंद्रिय व दानी राजा पृथ्वी पर राज करता था तथा अपनी प्रजा को संतान की तरह मानता था। एक दिन प्रजा उसके द्वार पर आकर अति त्राहि-त्राहि करने लगी। जनता ने बताया कि “ढोढा” नाम की एक राक्षसी प्रतिदिन हमारे बालकों को कष्ट देती है। हमने बहुत उपाय कर लिए लेकिन किसी भी तरह से उसका निवारण नहीं हो रहा है।
राजा ने अपने राजपुरोहित महर्षि वशिष्ठ मुनि से पूछा तो वे बोले राजन यह माली नाम के दैत्य की पुत्री है इसमें शिव को प्रसन्न कर अजेय होने का वरदान ले लिया है। शिव ने वरदान देते हुए कहा तथास्तु लेकिन उन्मत्त बालकों से तुम्हें भय होगा। यह राक्षसी नित्य बालकों व प्रजा को पीड़ा देती है। ‘अडाडा’ मंत्र का जाप करने से यह ढोंढा शांत हो जाती है, इस कारण इसे “अडाडा”भी कहते हैं।
महर्षि बोले, राजन मैं इस राक्षसी से पीछा छुड़ाने का उपाय बताता हूं। फागुन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को सभी लोगों को निडर होकर क्रीडा करनी चाहिए और नाचना गाना तथा हंसना चाहिए। बालक लकड़ियों के बने हुए तलवार से सैनिक की भांति व्यवहार करें। सूखी लकडी उपले, सूखी पत्तियां आदि अधिक से अधिक एक स्थान पर इकट्ठा कर उसे ढेर में रक्षोन्ध्र मंत्र मंत्रों से अग्नि लगाकर उसमें हवन करें। हंसकर ताली बजाना चाहिए। उस जलते हुए ढ़ेर की 3 बार परिक्रमा पर बच्चे बूढ़े भी आंनदायक विनोद पूर्ण वार्तालाप करें। ऐसा करने से उस दुष्ट राक्षसी का निवारण हो जाता है।
राजा ने अपने राज्य में एक ऐसा ही करवाया, इससे वहां राक्षसी नष्ट हो गई। इसके बाद लोक में ढोंढा का उत्सव प्रसिद्ध हुआ और अडाडा की परंपरा चली। दुष्टों और रोगों को शांत करने के लिए वसोर्धरा होम इस दिन किया जाता है, इसलिए इसे होलीका भी कहा गया है। फागुन मास की पूर्णिमा तिथि के दिन रात्रि को बालकों की विशेष रूप से रक्षा करनी चाहिए।
होली के दूसरे दिन प्रतिपदा में प्रातः काल उठकर नित्य क्रियाओं से निपट कर पितरो व देवताओं को तर्पण देना चाहिए तथा सभी दोषों की शांति के लिए होली की विभूति की वंदना करें उसे अपने शरीर पर लगाना चाहिए।
वर्तमान स्वरूप और मान्यताएं
वर्तमान का निर्माण भूत से ही होता है। अतः प्राचीन संस्कृति की मान्यताएं तो वहीं रही हैं मगर उनके स्वरूप में बदलाव आ गया है। होली पर्व पर ग्रामीण हीं नहीं शहरी क्षेत्रों में भी गोबर के वडकुंल्ला बनाकर उसे होलिका दहन में डाला जाता है, वहीं जो बच्चा हुआ है, उसका पहली बार ढूंढ मनाया जाने की प्रथा है। उसी बच्चे को होलिका दहन के बाद “ढूंढने “की प्रथा है ताकि बच्चा आवाजों से भयभीत ना हो।
होली का पर्व से पूर्व रात्रि को ‘गैर’ खेलने की प्रथा है तथा होली का पूजन के बाद होली का नई अग्नि घर में ले जाकर हवन करने की प्रथा है।
यदि कोई दुष्ट अनिष्ट कर रहा है तो उसको शांत करने के मंत्र विधान इस होली का रात्रि में किया जाता है। यदि व्यक्ति बीमार है तो उसी रात शांति कर्म के मंत्रों, विद्यानों से हवन यज्ञ करने की मान्यताएं आज तक विद्यमान है। तंत्र शास्त्र की दृष्टि से भी होली को महत्वपूर्ण माना जाता है।
हमारी संस्कृति की मान्यताएं परंपरा आज भी हमारे समाज में किसी न किसी रूप में विद्यमान जरूर है, चाहे उनके स्वरूप में बदलाव ही क्यों ना आ गया हो।
माघी पूर्णिमा से ही फागुन मास प्रारंभ हो जाता है उस दिन से ही होली का डांडा रोप दिया जाता है। होली दहन के 8 दिन पूर्व होलाष्टक प्रारंभ हो जाता है जिससे शुभ वह मांगलिक कार्यों को रोक दिया जाता है।
होली का दहन से पूर्व होली की पूजा अर्चना की जाती है तथा महिलाएं कच्चे सूत का धागा और हल्दी के गाठे को भी पूजा में ले जाती है तथा होलिका दहन होने पर होली की अग्नि की रोशनी सूत की कुकड़ी व हल्दी के गांठों को दिखाई जाती है।
दशामाता व्रत हेतु जो धागा तैयार किया जाता है वह उसी सूत की कुकड़ी से होता है तथा हल्दी के गांठों से उसे पीला रंगा जाता है। दशा माता के व्रत पूजा पाठ के बाद यह धागा अगले वर्ष तक महिलाएं पहनती हैं तथा वर्ष भर तक उस धागे को सुरक्षित रखती है। अभी होली में पुनः ये ही क्रिया की जाती है।
होली दहन के समय होली की आंच का रूप देखकर आमजन समझ जाता है कि इस वर्ष जमाना कैसा होगा, अर्थात वर्षा, काम, धंधा, रोजगार का रुझान कैसा होगा। आज तक यह मान्यताएं विद्यमान है। मेघमाला में एक श्लोक मिलता है।
जलै होलिका पश्चिम पोन,
अन्न निपजे चारों कोन।
उत्तर वायु होलिका दहे
धूंधूकार दुनिया कहे
पश्चिम पोन होलिका जोय
अन्न निपजे पण
खडकछु होय
पूरब पोन होलिका झालं
कठैक समयो कठैक काल
झालं तिणगोयं छिण छिण
टीडी- कीडो डाढ चलाय
होलिका दहन का मुहूर्त
1 मार्च 2018 गुरूवार पूर्णिमा दिन के 8 बजकर 58 मिनट से शुरू होगी तथा दूसरे दिन सूर्योदय से पूर्व सुबह 6 बज कर 21 मिनट तक रहेगी। सूर्योदय से पूर्व ही समाप्त हो जाएगी। अतः 1 मार्च 2018 गुरूवार को प्रदोष व्यापिनी पूर्णिमा मे होलिका उत्सव मनाया जाएगा।
भद्रा रहित होने पर ही होलिका दहन किया जाता है अतः 1 मार्च 2018 को भद्रा सुबह 8 बजकर 58 मिनट से रात 7 बज कर 40 मिनट तक रहेगी। इसलिए होलिका दहन 1 मार्च 2018 को भद्रा के बाद 7 बजकर 41 मिनट पर करना श्रेष्ठ है।
सौजन्य : भंवरलाल