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How many paninis have created modern indian education system?-आधुनिक शिक्षा-प्रणाली ने कितने पाणिनि पैदा किए हैं? - Sabguru News
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आधुनिक शिक्षा-प्रणाली ने कितने पाणिनि पैदा किए हैं?

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आधुनिक शिक्षा-प्रणाली ने कितने पाणिनि पैदा किए हैं?

लेखक:- गुंजन अग्रवाल

sabguru.com/18-22 भारतीय शिक्षा_व्यवस्था के सन्दर्भ में कुछ प्रश्न मेरे मन को विगत कुछ दिनों से लगातार झकझोर रहे हैं। यह एक निर्विवाद तथ्य है कि पूरे देश में शिक्षा-प्रणाली को लेकर बहस हो रही है और विभिन्न #शिक्षाविदों ने स्कूली #शिक्षा में वैकल्पिक प्रयोग किए जाने को लेकर अपने सुझाव दिए हैं। कुछ शिक्षाविदों ने इस सन्दर्भ में निजी स्तर पर #पाठशाला, #गुरुकुल और #स्कूल खोलने के प्रयास भी किए हैं। लेकिन कुल मिलाकर ‘स्कूल’ शब्द कहते ही हमारे दिमाग में कौन-सा चित्र उभरता है? वही बेंच-डेस्कवाला कमरा न!

आधुनिक शिक्षा-प्रणाली में हम देखते हैं कि पब्लिक स्कूलों में बहुत छोटी उम्र से ही, खेलने-कूदने की उम्र में, मासूम बच्चे पर बस्ते का बोझ लाद दिया जाता है, घर में माता-पिता अपनी महत्त्वाकांक्षा में बच्चे का बचपन निर्ममतापूर्वक कुचल रहे होते हैं। बच्चे को कभी भी उनकी नैसर्गिक रुचि के अनुसार कुछ करने या किसी ख़ास विषय का चयन करने नहीं दिया जाता, क्योंकि वैसा पाठ्यक्रम ही तैयार नहीं हुआ है।

बच्चे का स्कूल में यंत्रवत् पढ़ाई-लिखाई करना, घर आते ही होमवर्क में जुट जाना, तोते की तरह रटना और एग्ज़ाम! बच्चे के माता-पिता उससे पूछते हैं— तुम बड़े होकर क्या बनोगे? बच्चा कुछ कहे, इससे पहले माता-पिता कहते हैं- बोलो मैं बड़ा होकर डॉक्टर बनूंगा या मैं बड़ा होकर इंजीनियर बनूंगा। शायद ही कोई मां-बाप अपने बच्चे से कहते होंगे कि तुम बड़े होकर लता मंगेशकर की तरह एक महान् गायिक/गायिका बनना या तुम बड़े होकर राजा रवि वर्मा की तरह चित्रकार बनना।

कहने का तात्पर्य यह कि बच्चे के मन में माता-पिता अपने सपने को ठूँस देते हैं। इस तरह अपने सपने को साकार करने करने के लिए माता-पिता बच्चे, विद्यालय और ट्यूशन के बीच अपना अत्यधिक समय, शक्ति और धन बर्बाद करते हैं। इसके साथ अपने बच्चे का हंसता-मुस्कुराता बचपन भी नष्ट कर डालते हैं।

देशभर के बच्चों पर थोपी गई शिक्षा-प्रणाली ने देश में क्या बदलाव लाया है? आज देश अलगाववाद, भाषावाद, क्षेत्रवाद और जातिवाद की ऐसे भयानक दलदल में फँस गया है, जहां से उसे निकालने का मार्ग नहीं मिल रहा है। आधुनिक शिक्षा-प्रणाली, जो स्पष्ट तौर पर यूरोपीय शिक्षा-प्रणाली है, ने देश का कौन-सा कल्याण किया है? विगत तीन शताब्दियों का इतिहास उलटकर देख लीजिए— इस प्रणाली से हमने कितने पाणिनि, पतञ्जलि, चाणक्य, कालिदास, रामानुजाचार्य, आर्यभट्ट, वराहमिहिर, तुलसीदास, आदि पैदा किए हैं?

उल्लेखनीय है कि भारत के विश्वविद्यालयों में संस्कृत, दर्शन, ज्योतिष, वेद, आदि विभागों के अंतर्गत वेदव्यास, वाल्मीकि, वसिष्ठ, भर्तृहरि, कणाद, पाणिनि, पतञ्जलि, कात्यायन, भारवि, मम्मट, नारद, अमर सिंह, शबरस्वामी, स्कन्दस्वामी, शंकराचार्य, अभिनवगुप्त, भवभूति, भृगु, भोज, बोधायन, ब्रह्मगुप्त, हेमचन्द्राचार्य, चाणक्य, भास, वाणभट्ट, क्षेमेन्द्र, कपिल, उदयनाचार्य, भास्कराचार्य, नागार्जुन, दण्डी, रामानुजाचार्य, गौड़पाद, नागसेन, कालिदास, कबीर, सूरदास, तुलसीदास, आदि के द्वारा रचित ग्रंथों पर हज़ारों शोध-कार्य पिछली शताब्दी में हो चुके हैं और आज भी हो रहे हैं।

संस्कृत, प्राकृत और हिंदी के ये सभी विद्वान् आज से 500 वर्ष पहले से लेकर 5,000 वर्ष पूर्व या उससे भी अधिक समय पहले हुए हैं। इनके जोड़ का एक भी विद्वान् विगत पांच शताब्दियों में यदि हुआ हो, तो उसका नाम बताया जाए। इन विद्वानों ने किन शिक्षण-संस्थानों से एमए, एमबीए, बीएड, एमएड, नेट, जेआरएफ, एसआरएफ, डिप्लोमा, पीएचडी. और डीलिट् की उपाधि प्राप्त की थी?

संस्कृत-व्याकरण का अध्ययन करने वाले विद्यार्थी को पाणिनि की अष्टाध्यायी के सूत्रों से जूझना होगा, पतञ्जलि के महाभाष्य से सिर खपाना होगा, भर्तृहरि के वाक्यपदीयम् को मथना होगा, हेमचन्द्राचार्य के शब्दानुशासन में गोता लगाना होगा, भट्टोजी दीक्षित के सिद्धान्तकौमुदी का पारायण करना होगा, वरदराज के लघुसिद्धान्तकौमुदी में अवगाहन करना होगा। इनके अध्ययन के बिना क्या व्याकरण का ज्ञान हो सकता है? और इनमें से कौन-सा वैयाकरण विगत 3 शताब्दियों में पैदा हुआ है?

आज भी वास्तुकला, मूर्तिकला तथा चित्रकला का अध्ययन करनेवाले विद्यार्थी को शिल्पविज्ञान के अपराजितपृच्छा, कामिकागम, मनुष्यालयचन्द्रिका, समरांगणसूत्रधार, राजवल्लभ, वास्तुसौख्यम्, विश्वकर्मावास्तुशास्त्र, विष्णुधर्मोत्तरपुराण, बृहत्संहिता, मयमतम् आदि संस्कृत के 350 से अधिक ग्रंथों का अध्ययन करना पड़ता है। इन सभी ग्रंथों के ग्रंथकार आज से 500 वर्ष पहले से लेकर 5,000 वर्ष पूर्व के मध्य हुए हैं। विगत डेढ़ सौ वर्षों के कालखण्ड में क्या इनके जैसा एक भी ग्रंथ लिखा गया है?

ज्योतिष का प्रथम श्रेणी का ज्ञान प्राप्त करने वाले व्यक्ति को ‘बृहत्पाराशरहोराशास्त्रम्’, ‘जातकपारिजात’, ‘आर्यभट्टीयम्’, ‘लघुजातकम्’, ‘मध्यपाराशरी’, ‘सारावली’, ‘वृद्धयवनजातक’, ‘करणप्रकाश’, ‘समरसार’, ‘गर्गहोरा’, ‘भृगुसंहिता’, ‘रावणसंहिता’, ‘दैवज्ञवल्लभ’, ‘बृहज्जातक’, ‘चमत्कारचिन्तामणि’, ‘जातकालंकार’, ‘सूर्यसिद्धान्त’-जैसे संस्कृत के सहस्राधिक मूल ग्रंथों का कठिन अभ्यास करना होगा। इन सभी ग्रंथों के ग्रंथकार आज से 500 वर्ष पहले से लेकर 5,000 वर्ष पूर्व के मध्य हुए हैं। आधुनिक ज्योतिषी इन्हीं विद्वानों के ग्रंथों के सहारे अपनी दुकानें चला रहे हैं।

संस्कृत के सभी प्रसिद्ध नाटकों की सूची पर नज़र डालिए— ‘अभिज्ञानशाकुन्तलम्’, ‘मालविकाग्निमित्रम्’, ‘विक्रमोर्वशीयम्’ (कालिदास, प्रथम शताब्दी ई.पू.); ‘स्वप्नवासवदत्ता’, ‘यज्ञफल’, ‘प्रतिमानाटकम्’, ‘दूतवाक्य’, ‘उरुभंग’ (भास, प्रथम शताब्दी); ‘रत्नावली’, ‘प्रियदर्शिका’, ‘नागानन्द’ (हर्षवर्धन, 7वीं शताब्दी); ‘उत्तररामचरितम्’, ‘मालतीमाधवम्’, ‘महावीरचरितम्’ (भवभूति, 7वीं शताब्दी); ‘मृच्छकटिकम्’ (शूद्रक, तृतीय-छठी शताब्दी); ‘कर्पूरमंजरी’, ‘विद्धशालभंजिका’, ‘बालरामायण’, ‘बालभारत’ (राजशेखर, 10वीं शताब्दी); ‘मुद्राराक्षस’ (विशाखदत्त, 400 ई.); ‘वासवदत्ता’ (सुबन्धु); ‘सारिपुत्रप्रककरण’ (अश्वघोष); ‘वेणीसंहार’ (भट्टनारायण, 7वीं शताब्दी), ‘अनर्घराघव’ (मुरारि), ‘आश्चर्यचूड़ामणि’ (शकितभद्र, 9वीं शताब्दी), ‘हनुमन्नाटकम्’ (दामोदर मिश्र, 9वीं शताब्दी), ‘कुन्दमाला’ (दिङ्नाग, 1000 ई.), ‘प्रबोधचन्द्रोदय’ (कृष्ण मिश्र, 1100 ई.), ‘किरातार्जुनीयव्यायोग’, ‘कर्पूरचरित’, ‘हास्यचूडामणि’, ‘रक्मिणीहरण’, ‘त्रिपुरदाह’, ‘समुद्रमन्थन’ (वत्सराज, 12वीं शताब्दी), ‘प्रसन्नराघव’ (जयदेव, 12वीं शताब्दी), आदि। विगत तीन शताब्दियों में हुए एक भी बड़े नाटककार का नाम किसी को याद है?

आज दुनियाभर में काम या सेक्स पर चर्चा हो रही है। भारत के ऋषि-मुनियों ने इस विषय पर भी शताधिक ग्रंथों की रचना की थी— कामसूत्र (वात्स्यायन), कामप्रबोध (व्यास जर्नादन), कामरत्न (नित्यनाथ), कामसमूह (अनन्त), कन्दर्पचूडामणि (वीरभद्रदेव), रतिरहस्यदीपिका (कांचीनाथ), रतिरत्नदीपिका (इम्मादि प्रौढ़देवराय), स्त्रीविलास (देश्वेश्वर), अनंगरंग (कल्याणमल्लदेव, 16वीं शताब्दी), कामप्रदीप (गुणाकर), कुट्टिनीमतम् (दामोदरगुप्त), रतिरहस्य (कोक्कोक), रतिशास्त्रम् (नागार्जुन), पंचसायक (कविशेखर ज्योतिरीश्वर), शृंगारदीपिका (हरिहर), आदि। कामकला पर इतना मंथन दुनिया में कहीं हुआ है?

1 लाख 10 हज़ार श्लोकों वाला दुनिया का सबसे बड़ा महाकाव्य महाभारत भारत में ही लिखा गया, और वह भी आज से 200 या 300 साल पहले नहीं, अपितु 5,100 वर्ष पहले। 24,000 श्लोकों वाले वाल्मीकीय रामायण को आदिकाव्य कहा जाता है। इन दोनों के अतिरिक्त संस्कृत के कुछ अन्य महाकाव्यों पर नज़र डालिए-

• बुद्धचरितम् (अश्वघोष)
• कुमारसम्भवम् (कालिदास, प्रथम शताब्दी ई.पू.)
• रघुवंश (कालिदास)
• किरातार्जुनीयम् (भारवि, छठी शताब्दी)
• शिशुपालवध (माघ, 7वीं शताब्दी)
• पृथ्वीराजरासो (चन्दबरदाई, 12वीं शताब्दी)
• नैषधीयचरित्र (श्रीहर्ष, 12वीं शताब्दी)
• श्रीरामचरितमानस (तुलसीदास, 16वीं शताब्दी)
उपर्युक्त महाकाव्यों के अतिरिक्त बीसवीं-इक्कीसवीं शती में रचित एक भी उल्लेखनीय महाकाव्य का नाम बताइए।

काव्यशास्त्र का अध्ययन करने वाले व्यक्ति को मम्मट की काव्यप्रकाश, राजशेखर की काव्यमीमांसा, रुय्यक का अलंकारसर्वस्व, गोविन्द ठक्कुर का काव्यप्रदीप, विश्वनाथ कविराज का काव्यप्रकाशदर्पण, विश्वनाथ का साहित्यदर्पण, दण्डी का काव्यादर्श, आनन्दवर्धन का ध्वन्यालोक, माणिक्यचन्द्र का काव्यप्रकाशसंकेत, केशव मिश्र का ‘अलंकारशेखर’, ‘अग्निपुराण’ आदि प्रसिद्ध ग्रंथों को पढ़ना पड़ेगा, जो आज से 600-700 वर्ष से लेकर कम-से-कम 2,000 वर्ष पूर्व तक विद्यमान रहे थे।

इसी प्रकार भारत ने दुनिया को युद्ध-नीति, अर्थशास्त्र, आयुर्वेद, शल्य, रसायन, भौतिकी, पराभौतिकी (खगोलविज्ञान), ब्रह्मविद्या, अणुविज्ञान, जीवविज्ञान, आदि अनेक विषयों पर सर्वप्रथम मौलिक ग्रंथ प्रदान किए थे। दुनियाभर के वैज्ञानिक वैदिक मंत्रों की महाशक्ति पर शोध-कार्य कर रहे हैं और हमलोग उन्हें पौरोहित्य वर्ग से जोड़ने में ही गौरव अनुभव कर रहे हैं।

विगत कुछ समय से अपने देश में एक शब्द का बहुत प्रचार हुआ है— जगद्गुरु या विश्वगुरु। भारत एक समय विश्वगुरु था और हम उसे पुनः विश्वगुरु बनाएंगे यह विचार बड़े-बड़े लोग व्यक्त करते हैं। परन्तु भारत को विश्वगुरुत्व या जगद्गुरुत्व कैसे प्राप्त हुआ था, इसका कोई चित्र वे विद्वान् हमारे सामने नहीं रखते। भारत को विश्वगुरु या जगद्गुरु की पदवी उसकी शिक्षा-व्यवस्था के कारण प्राप्त हुई थी।

भारतवर्ष ने दुनिया को विभिन्न विषयों के महान् विद्वान् और महान् ग्रन्थ सौंपे, वे विद्वान् किसी कॉन्वेंट स्कूल की उपज नहीं थे, वे विद्वान् गुरुकुल-प्रणाली से पले-बढ़े थे। हमारे यहां कहा जाता था— एतद्देश प्रसूतस्य सकासादग्रजन्मना। स्वं स्वयं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः। (मनुस्मृति, 2.20) अर्थात्, इस देश में जन्मे लोगों से दुनिया के लोग चरित्र-निर्माण की शिक्षा लें। क्या इस श्लोक को आज का भारत गर्व से दुहरा सकता है?

गान्धार, तक्षशिला, राजगृह के समीप नालन्दा, भागलपुर-स्थित विक्रमशिला एवं काठियावाड़ के वल्लभी विश्वविद्यालयों ने, चाहे बौद्ध शिक्षा में ही सही, अपने समय में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। चाणक्य की दुर्धर्ष प्रखरता तक्षशिला से उपजी थी। यहीं के स्नातक उनके प्रथम सहयोगी थे, जिनके सम्मिलित प्रयासों से मौर्य-साम्राज्य की नींव डल सकी। चाणक्य का लोहा पूरी दुनिया मानती है।

कुमारिल भट्ट उस नालन्दा में गढ़े गए, जहाँ समूचे एशिया से छात्र ज्ञानार्जन करने आते थे। भगवत्पाद शंकराचार्य के योगदान को कौन भुला सकता है, जिन्होंने न केवल चार मठों की स्थापना की, अपितु द्वादश ज्योतिर्लिंगों का व्यवस्थापन किया, प्रस्थानत्रयी पर भाष्य लिखा, कुम्भ-मेलों को पुनः प्रारम्भ करवाया, अवैदिक मत-मतांतरों से सफलतापूर्वक टक्कर ली। चोल-सम्राट् देवपाल के समय विक्रमशिला में गढ़े गए परिव्राजकों ने भारत ही नहीं, अपितु सुदूर ब्रह्मदेश, मलाया आदि जगहों पर पहुंचकर ज्ञान का प्रसार किया।

पांचवीं से आठवीं शती तक वल्लभी के स्नातकों ने अकेले काठियावाड़ ही नहीं, समूचे भारत की जनचेतना को जीवन्त और सचेत रखा। यहां के आचार्यगण व्यक्तित्वों को ढालने में इतने माहिर थे कि अन्य देशों के लोग भी यहां विद्या-अर्जन के लिए तरसते थे। काशी, उज्जयिनी, काञ्चीपुरम, अमरावती, औदंतपुरी आदि जगह भी विद्या के ऐसे ही केन्द्र थे, जहां से साधारण व्यक्ति असाधारण प्रखर बनकर निकलते थे। आज के विश्वविद्यालयों की स्थिति देख लीजिए।

वर्तमान भारत के किसी भी विश्वविद्यालय में विदेशों से पढ़ने आनेवाले छात्रों की संख्या पता कीजिए। आपको संख्या नगण्य मिलेगी। यदि भारत में कोई विदेशी छात्र/शोधार्थी आता भी है, तो वह भारतीय संस्कृति के किसी आयाम पर खोज करने या किसी संस्कृत ग्रंथ/पाण्डुलिपि की तलाश में आता है। कोई भी विदेशी विद्यार्थी एमबीए, एमबीबीएस या पीएचडी करने भारत नहीं आता। उलटे भारतीय छात्र इन डिग्रियों के लिए विदेशों की दौड़ खूब लगाते हैं।

क्या हमने कभी इस विषय पर गम्भीरता से चिन्तन किया है कि एक समय दुनिया के कोने-कोने से यहाँ आनेवाले वि़द्यार्थी अब क्यों नहीं आते? भारत में दी जानेवाली आधुनिक शिक्षा-प्रणाली क्या तैयार कर रही है? क्या चाणक्य? क्या शंकराचार्य? क्या विवेकानन्द? क्या कालिदास? क्या भवभूति? क्या वेदव्यास? क्या पाणिनि? क्या पतञ्जलि? क्या तुलसीदास? क्या अश्वघोष? क्या राजशेखर? नहीं। क्या क्लर्क? हां यहां की शिक्षा-प्रणाली दिनोंदिन अपनी मौलिकता और रचनात्मकता खोकर नौकरी के इर्द-गिर्द घूम रही है, बच्चे मेधावी कैसे बनेंगे?

एप्पल के सह-संस्थापक स्टीव वॉजनैक ने अभी हाल ही में एक साक्षात्कार में एक कटु किन्तु सत्य बयान दिया कि भारत में जॉब मिलने को सफलता कहा जाता है, किन्तु इसमें रचनात्मकता कहां है? स्टीव वॉजनैक ने वर्तमान शिक्षा-प्रणाली की ओर इशारा करके कहा कि वर्तमान भारतीय शिक्षा-व्यवस्था पढ़ाई पर टिकी है, लेकिन रचनात्मकता को बढ़ावा नहीं देती है।

उन्होंने कहा कि आप कितने टैलेंटेड हैं? अगर आप इंजीनियर हैं या एमबीए हैं, तो अपनी डिग्री पर इठलाइये, लेकिन खुद से पूछिये कि आपमें कितनी रचनात्मकता है। स्टीव ने कहा कि उन्हें इस बात की उम्मीद नहीं है कि भारत में गूगल, फेसबुक और एप्पल-जैसी दुनिया की बड़ी कम्पनियाँ तैयार हो सकती हैं; क्योंकि भारतीयों के पास रचनात्मकता की कमी है और उन्हें इस तरह के कॅरियर के लिए बढ़ावा भी नहीं दिया जाता है।

उन्होंने कहा कि भारत में सफलता का मतलब ऐकडमिक ऐक्सेलेंस, पढ़ाई, सीखना, अच्छी जॉब और भौतिक सुख-सुविधाओं का उपभोग करते हुए एक बेहतर जीवन जीना है। न्यूजीलैंड जैसे छोटे देश को देखिए जहाँ लेखक, सिंगर, खिलाड़ी हैं और यह एक अलग दुनिया है।

स्टीव वॉजनैक ने बिलकुल ठीक इंगित किया है कि आज के भारतीय युवा का उद्देश्य बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में नौकरी और उसके द्वारा आजीविका प्राप्त करना या कहिए भौतिक संसाधनों को जुटाना मुख्य है और वह उसी को समस्त सुख-शान्ति का मूलाधार समझ रहा है।

क्या हमने आधुनिक शिक्षा-पद्धति की पूरी पड़ताल की है जिसका उद्देश्य ज़्यादा-से-ज़्यादा धन कमाना है, और उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए इसमें किसी प्रकार के साधन अपनाने की खुली छूट दी गई है। महाविद्यालय/विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर की नौकरी पानेवाला उस योग्य है भी अथवा नहीं, यह न देखकर उसके द्वारा लाया गया सिफ़ारशी पत्र देखा जाता है।

एक छात्र प्रशासक, डॉक्टर, प्रोफेसर या इंजीनियर आदि आदि कुछ भी किन्हीं भी तरीकों से बने, परन्तु बने अवश्य— यह आज के शिक्षाविद् और राजनेता चाहते हैं; उसमें नैतिकता-जैसे श्रेष्ठ मानवोचित गुणों का समावेश हुआ या नहीं— यह उनकी कल्पना से बहुत दूर की बात है।

आज शिक्षा का उद्देश्य केवल मानव को साक्षर करना और उसके द्वारा नौकरी लेकर भोजन, वस्त्र तथा आवास जैसी सुविधाएँ प्राप्त हो जायें— यह चिन्तन हर आधुनिक शिक्षाशास्त्री को उद्वेलित करता है। इसी मानसिकता के अनुरूप प्रत्येक गांव तक में सरकारी व निजी स्तर पर विद्यालय खोले गए हैं अथवा खोले जा रहे हैं।

निजी विद्यालयों, महाविद्यालयों और बहुत से विश्वविद्यालयों ने इसे एक व्यवसाय के रूप में स्वीकार किया है और भारी-भरकम फ़ीस के द्वारा खूब कमाई भी कर रहे हैं। ऐसे में चाणक्य, पाणिनि, पतंजलि, तुलसीदास, आदि कहां से पैदा होंगे?