विश्व को सनातन धर्म की एक अनमोल देन है गुरु-शिष्य परंपरा। संत गुलाबराव महाराज जी से किसी पश्चिमी व्यक्ति ने पूछा कि भारत की ऐसी कौन सी विशेषता है, जो न्यूनतम शब्दों में बताई जा सकती है? तब महाराजजी ने कहा कि गुरु-शिष्य परंपरा। इससे हमें इस परंपरा का महत्त्व समझ में आता है। ऐसी परंपरा के दर्शन करवाने वाला पर्व युग-युग से मनाया जा रहा है तथा वह है गुरुपूर्णिमा। हमारे जीवन में गुरु का क्या स्थान है, गुरुपूर्णिमा हमें इसका स्पष्ट पाठ पढाती है।
गुरु का महत्त्व
गुरु वे हैं जो साधना बताते हैं, साधना करवाते हैं एवं आनंद की अनुभूति प्रदान करते हैं। गुरु का ध्यान शिष्य के भौतिक सुख की ओर नहीं अपितु केवल उसकी आध्यात्मिक उन्नति पर होता है। गुरु ही शिष्य को साधना करने के लिए प्रेरित करते हैं, चरण दर चरण साधना करवाते हैं, साधना में उत्पन्न होने वाली बाधाओं को दूर करते हैं, साधना में टिकाए रखते हैं एवं पूर्णत्व की ओर ले जाते हैं। गुरु के संकल्प के बिना इतना बडा एवं कठिन शिवधनुष उठा पाना असंभव है। इसके विपरीत गुरु की प्राप्ति हो जाए तो यह कर पाना सुलभ हो जाता है। श्री गुरुगीता में ‘गुरु’ संज्ञा की उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार किया गया है।
गुकारस्त्वन्धकारश्च रुकारस्तेज उच्यते।
अज्ञानग्रासकं ब्रह्म गुरुरेव न संशयः।।
अर्थ : ‘गु’ अर्थात अंधकार अथवा अज्ञान एवं ‘रु’ अर्थात तेज, प्रकाश अथवा ज्ञान। इस बात में कोई संदेह नहीं कि गुरु ही ब्रह्म हैं जो अज्ञान के अंधकार को दूर करते हैं। इससे ज्ञात होगा कि साधक के जीवन में गुरु का महत्त्व अनन्य है। इसलिए गुरु प्राप्ति ही साधक का प्रथम ध्येय है। गुरु प्राप्ति से ही ईश्वर प्राप्ति होती है अथवा यूं कहें कि गुरु प्राप्ति होना ही ईश्वरप्राप्ति है, ईश्वर प्राप्ति अर्थात मोक्ष प्राप्ति- मोक्ष प्राप्ति अर्थात निरंतर आनंदावस्था। गुरु हमें इस अवस्था तक पहुंचाते हैं। शिष्य को जीवन मुक्त करने वाले गुरु के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए गुरुपूर्णिमा मनाई जाती है।
गुरुपूर्णिमा दिन विशेष
आषाढ शुक्ल पूर्णिमा को गुरुपूर्णिमा एवं व्यास पूर्णिमा कहते हैं। गुरुपूर्णिमा गुरुपूजन का दिन है। गुरुपूर्णिमा का एक अनोखा महत्त्व भी है। अन्य दिनों की तुलना में इस तिथि पर गुरुतत्त्व सहस्र गुना कार्यरत रहता है। इसलिए इस दिन किसी भी व्यक्ति द्वारा जो कुछ भी अपनी साधना के रूप में किया जाता है, उसका फल भी उसे सहस्र गुना अधिक प्राप्त होता है।
गुरुपूर्णिमा का अध्यात्म शास्त्रीय महत्व
इस दिन गुरुस्मरण करने पर शीघ्र आध्यात्मिक उन्नति होने में सहायता होती है। इस दिन गुरु का तारक चैतन्य वायुमंडल में कार्यरत रहता है। गुरुपूजन करने वाले जीव को इस चैतन्य का लाभ मिलता है। गुरुपूर्णिमा को व्यास पूर्णिमा भी कहते हैं, गुरुपूर्णिमा पर सर्वप्रथम व्यास पूजन किया जाता है। एक वचन है – व्यासोच्छिष्टम् जगत् सर्वम्। इसका अर्थ है, विश्व का ऐसा कोई विषय नहीं, जो महर्षि व्यास जी का उच्छिष्ट अथवा जूठन नहीं है अर्थात कोई भी विषय महर्षि व्यास जी द्वारा अनछुआ नहीं है।
महर्षि व्यास ने चार वेदों का वर्गीकरण किया। उन्होंने अठारह पुराण, महाभारत इत्यादि ग्रंथों की रचना की है। महर्षि व्यास के कारण ही समस्त ज्ञान सर्वप्रथम हम तक पहुंच पाया। इसीलिए महर्षि व्यास को आदिगुरु कहा जाता है। ऐसी मान्यता है कि उन्हीं से गुरु-परंपरा आरंभ हुई। आद्य शंकराचार्य को भी महर्षि व्यास का अवतार मानते हैं।
गुरुपूर्णिमा उत्सव मनाने की पद्धति
सर्व संप्रदायों में गुरुपूर्णिमा उत्सव मनाया जाता है। यहां पर महत्त्वपूर्ण बात यह है कि गुरु एक तत्त्व हैं। गुरु देह से भले ही भिन्न-भिन्न दिखाई देते हों परंतु गुरुतत्त्व तो एक ही है। संप्रदायों के साथ ही विविध संगठन तथा पाठशालाओं में भी गुरुपूर्णिमा महोत्सव श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है।
गुरुपूजन के लिए चौकी को पूर्व-पश्चिम दिशा में रखिए। जहां तक संभव हो, उसके लिए मेहराब अर्थात लघुमंडप बनाने के लिए केले के खंभे अथवा केले के पत्तों का प्रयोग कीजिए। गुरु की प्रतिमा की स्थापना करने हेतु लकडी से बने पूजाघर अथवा चौकी का उपयोग कीजिए। थर्माकोल का लघुमंडप न बनाइए। थर्माकोल सात्त्विक स्पंदन प्रक्षेपित नहीं करता। पूजन करते समय ऐसा भाव रखिए कि हमारे समक्ष प्रत्यक्ष सदगुरु विराजमान हैं।
सर्वप्रथम श्री महागणपति का आवाहन कर देशकालकथन किया जाता है। श्रीमहागणपति का पूजन करने के साथ-साथ विष्णुस्मरण किया जाता है। उसके उपरांत सदगुरु का अर्थात महर्षि व्यास का पूजन किया जाता है। उसके उपरांत आद्य शंकराचार्य इत्यादि का स्मरण कर अपने-अपने संप्रदायानुसार अपने गुरु के गुरु का पूजन किया जाता है। यहां पर प्रतिमा पूजन अथवा पादुका पूजन भी होता है। उसके उपरांत अपने गुरु का पूजन किया जाता है। इस दिन गुरु अपने गुरु का पूजन करते हैं।
संकटकालीन स्थिति में इस तरह मनाएं गुरुपूर्णिमा
5 जुलाई 2020 को व्यास पूर्णिमा अर्थात गुरुपूर्णिमा है। प्रतिवर्ष अनेक लोग एकत्रित होकर अपने-अपने संप्रदाय के अनुसार गुरुपूर्णिमा महोत्सव मनाते हैं परंतु इस वर्ष कोरोना विषाणु के प्रकोप के कारण हम एकत्रित होकर गुरुपूर्णिमा महोत्सव नहीं मना सकते। यहां महत्त्वपूर्ण सूत्र यह है कि हिन्दू धर्म ने धर्माचरण के शास्त्र में संकटकाल के लिए भी कुछ विकल्प बताए हैं, जिसे ‘आपद्धर्म’ कहा जाता है। आपद्धर्म का अर्थ है ‘आपदि कर्तव्यो धर्मः।
अर्थात आपदा के समय आचरण करने आवश्यक धर्म। वर्तमान कोरोना संकट की पृष्ठभूमि पर देशभर में यातायात बंदी (लॉकडाऊन) है। इसी अवधि में गुरुपूर्णिमा होने से संपत्काल में बताई गई पद्धति के अनुसार इस वर्ष हम सार्वजनिक रूप से गुरुपूर्णिमा नहीं मना सकेंगे। इस दृष्टि से वर्तमान परिस्थिति में धर्माचरण के रूप में क्या किया जा सकता है, इस पर भी विचार किया गया है। यहां महत्त्वपूर्ण सूत्र यह है कि इससे हिन्दू धर्म ने कितने उच्च स्तर तक जाकर मनुष्य का विचार किया है, यह सीखने को मिलता है। इससे हिन्दू धर्म की विशालता और महानता ध्यान में आती है।
1. गुरुपूर्णिमा के दिन सभी को अपने-अपने घर भक्तिभाव के साथ गुरुपूजन अथवा मानस पूजा करने पर भी गुरुतत्त्व का एक सहस्र गुना लाभ मिलना : गुरुपूर्णिमा के दिन अधिकांश साधक अपने गुरुदेव के पास जाकर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा के अनुसार कुछ लोग श्री गुरु, कुछ माता-पिता, कुछ विद्यागुरु (जिन्होंने हमें ज्ञान दिया, वे शिक्षक), कुछ आचार्यगुरु (हमारे यहां पारंपरिक पूजा के लिए आने वाले गुरु), तो कुछ लोग मोक्षगुरु (जिन्होंने हमें साधना का दिशादर्शन कर मोक्ष का मार्ग दिखाया, वे श्री गुरु) के पास जाकर उनके चरणों में कृतज्ञता व्यक्त करते हैं।
इस वर्ष कोरोना संकट की पृष्ठभूमि पर हम घर पर रहकर ही भक्तिभाव से श्री गुरुदेव जी के छायाचित्र का पूजन अथवा मानसपूजन करते है, तब भी हमें गुरुतत्त्व का एक सहस्र गुना लाभ मिलेगा। प्रत्येक व्यक्ति की श्रद्धा के अनुसार भले ही इष्टदेवता, संत अथवा श्री गुरु अलग हों; परंतु गुरुतत्त्व एक ही होता है।
2. सभी भक्तों ने एक ही समय पूजन किया, तो उससे संगठित शक्ति का लाभ मिलना : संप्रदाय के सभी भक्त पूजन का एक विशिष्ट समय सुनिश्चित कर संभवतः उसी समय अपने-अपने घरों में पूजन करें। एक ही समय पूजन करने से संगठित शक्ति का अधिक लाभ मिलता है। अतः सभी का मत लेकर संभवतः एक ही समय सुनिश्चित कर उस समय पूजन करें।
अ. सवेरे का समय पूजन हेतु उत्तम माना गया है। जिन्हें सवेरे पूजन करना संभव है, वे सवेरे का समय सुनिश्चित कर उस समय पूजन करें।
आ. कुछ अपरिहार्य कारण से जिन्हें सवेरे पूजन करना संभव न हो, वे सायंकाल का एक समय सुनिश्चित कर उस समय; परंतु सूर्यास्त से पहले अर्थात सायंकाल 7 बजे से पूर्व पूजन करें।
इ. जिन्हें निर्धारित समय में पूजन करना संभव नहीं है, वे अपनी सुविधा के अनुसार; परंतु सूर्यास्त से पहले, पूजन करें।
ई. सभी साधक घर पर ही अपने-अपने संप्रदाय के अनुसार श्री गुरु अथवा इष्टदेवता की प्रतिमा, मूर्ति अथवा पादुकाओं का पूजन करें।
उ. चित्र, मूर्ति अथवा पादुकाओं को गंध लगाकर पुष्प समर्पित करें। धूप, दीप एवं भोग लगाकर पंचोपचार पूजन करें और उसके पश्चात श्री गुरुदेव जी की आरती उतारें।
ऊ. जिन्हें सामग्री के अभाव में प्रत्यक्ष पूजा करना संभव नहीं है, वे श्री गुरु अथवा इष्टदेवता का मानस पूजन करें (अर्थात मन से ऐसे भाव रखें कि वे गुरु का पूजन कर रहे हैं और गुरुपूजन की प्रत्येक कृति मन ही मन करें)।
ए. उसके पश्चात श्री गुरुदेव जी द्वारा दिए गए मंत्र का जप करें। जब से हमारे जीवन में श्री गुरुदेवजी आए, तब से जो अनुभूतियां हूई है, उनका हम स्मरण कर उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त करें।
ऐ. इस समय, पिछले वर्ष हम साधना में कहां अल्प पडे, हमने श्री गुरुदेव जी की सीख का प्रत्यक्षरूप में कितना आचरण किया, इसका भी अवलोकन कर उस पर चिंतन करें।
संदर्भ : सनातन-निर्मित ग्रंथ ‘त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत’