सबगुरु न्यूज। सम्पूर्ण जगत एक नगर की भांति होता है जिसमें जीवन भ्रमण करता प्रकृति की विरासत को देखता है और उसका उपभोग करता है। बहुत कुछ अपने अनुभव और घटनाक्रम को यादों की उस पुस्तक में छोड़ जाता है। यही अनुभव भावी पीढ़ी, सभ्यता तथा संस्कृति के लिए एक आदर्श साहित्य बनकर मार्ग दर्शक की भूमिका अदा करते हैं।
इस जगत में जीवन धारण करने वालों की संख्या में जब विस्तार होने लगता है तो मानव प्रकृति के प्रबन्धन को देख अपनी व्यवस्था का ढांचा तैयार करता है। आवश्यकता को पूरी करते करते आविष्कार करने लग जाता है। बस यहीं से प्रकृति के जगत ओर जीवन के अपनी व्यवस्थाओं के जगत में भारी परिवर्तन आने लगता है।
कारण जीवन धारण करने वाला चौदह मनोवृत्तियों के साथ जन्म लेता है और यही मनोवृत्ति जीवन के समुदायों में अंतर करने लग जाती है। वह अपने द्वारा बनाए हुए जगत को अव्यवस्थित करने लग जाता है। जीवन का नगर भ्रमण अंधेरी नगरी के खंडहरों और उन मार्गों से होता है जहां मृत शरीर को भी झूलों के साथ विदाई दी जाती है।
“जीवन” जब अपने द्वारा बनाई उस अंधेरी नगरी व खंडहरों की विरासत तथा सोच के टूटे फूटे मार्ग से नगर भ्रमण करता और लडखडाता हुआ जब अपना जलाभिषेक करता है तो जल कहता है कि हे जीवन अब मैंने तेरा जलाभिषेक कर दिया है, अब तुझे अपनी “सोच की करवट” बदलनी पड़ेगी क्योंकि अब तक तू बस एक ही करवट को दुनिया समझता था पर अब “दूसरी करवट” बदल और जगत को देख जीवन जहां मृत शरीर जैसे पडा है और विद्याता की यह विरासत अपने आंसू बहा रही है।
संत जन कहते हैं कि हे मानव इस जगत के निर्माण करने वाले ने खूबसूरत जगत और जीवन को विरासत के रूप मे दिया है। मानव जब एक तरफा सोच में ही अपने द्वारा तैयार किए जगत व जीवन को सब कुछ मान कर खुश हो जाता है और दूसरी तरफ़ बर्बादी को देख आंखे बंद कर के मुस्कुराता रहता है। यही मुस्कराहट जगत व जीवन को एक खंडहरों की विरासत बना देती है।
इसलिए हे मानव तू अब तेरी सोच को बदल ओर दूसरी तरफ झांक। सोच का दक्षिणायन हो चुका है। यदि जगत और जीवन को खूबसूरत नहीं बनाया तो दक्षिणायन की लम्बी राते तुझे आराम से सो जाने को मजबूर कर देगी और इस खूबसूरत जगत और जीवन का आनंद नहीं लेने देंगी।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर