जयपुर। राजस्थान हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीश विनोद शंकर दवे ने कहा कि अगर समय रहते प्रधान न्यायाधीश चार न्यायाधीशों के पत्र का जवाब दे देते तो शायद प्रेस कॉन्फ्रेंस की जरूरत ही नहीं पड़ती। इससे न्यायपालिका की साख पर जो हुआ, उसकी नौबत नहीं आती और इतना बड़ा विवाद खड़ा नहीं होता।
समानांतर साहित्य उत्सव के तीसरे दिन न्यायाधीश विनोद शंकर दवे की आत्मकथा पर आधारित हाल ही में प्रकाशित पुस्तक ‘एक अदालत अंतर्मन में’ चर्चा का आयोजन रखा गया। जस्टिस दवे से पूर्व महाधिवक्ता गिरधारी बापना और शायर लोकेश कुमार सिंह साहिल ने संवाद किया।
जस्टिस दवे ने अपनी आत्मकथा के कई अनछुए पहलुओं पर चर्चा की एवं न्यायपालिका तथा न्यायिक फैसलों को लेकर श्रोताओं के सवालों का भी जवाब दिया।
जस्टिस दवे ने कहा कि भारत ऐसा देश है जहां न्याय हमेशा विलंब से प्राप्त होता है और इसके पीछे ब्रिटिश अदालतों की अवधारणा रही है। भारत अभी भी इससे मुक्त नहीं हो पाया है। उन्होंने मजिठिया आयोग के प्रश्न पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी।
न्यायपालिका में परिवारवाद के प्रश्न का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि मैं इसके बिल्कुल विरुद्ध हूं लेकिन अगर परिवार में कोई सक्षम है तो इसमें कोई बुराई नहीं है। न्यायपालिका में राजनीतिक हस्तक्षेप पर उन्होंने कहा कि जब कॉलेजियम नहीं था, तब न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रधान न्यायाधीश की अनुशंसा पर करते थे, जो अब नहीं है।