अजमेर। खुशी की तलाश स्वयं के भीतर ही खत्म होती है। इसे बाहर ना तलाशें। भौतिक सुख सुविधा के बीच भाव पूर्ण जीवन जीना ही श्रेष्ठ जीवन है। अभ्युदाय संस्थान अंछोटी रायपुर छत्तीसगढ़ के शिक्षा वैज्ञानिक एवं शोधकर्ता सोम त्यागी ने बुधवार को खुशहाली कार्यशाला-मन की पाठशाला में यह संदेश बखूबी पढाया और समझाया।
अन्तरराष्ट्रीय वैश्य महासम्मेलन की अजमेर जिला वैश्य महासम्मेलन ईकाई की ओर से शिकायत मुक्त, अभाव मुक्त, रोग मुक्त परिवार बनाने के लिए बीके कौल नगर स्थित मणिपुन्ज सेवा संस्थान में आयोजित कार्यशाला में समरसता पूर्वक जीने के गुरु संजोए दुनिया की एकमात्र रिसर्च को साझा करते हुए उन्होंने कहा कि वर्तमान शिक्षा पेट भरने के लिए योग्यता प्राप्त करे का साधन मात्र हो गई है। यह नौकरी, काम, व्यवसाय के लक्ष्य को पूरा करती है। इसमें खुश रहने और खुश रखने के जीवन दर्शन का नितांत अभाव परिलक्षित होता है। शिक्षा में आमूलचूल परिवर्तन के साथ इसमें जीवन को बेहतर बनाने के लिए संस्कारों का समावेश आवश्यक है।
नौकरी, शादी, शिक्षा आदि का आकर्षण उस कार्य के पूरा हो जाने के पहले तक होता है। उसके बाद यह आकर्षण समाप्त सा हो जाता है। जिंदगी को हम धर्म और साधना में तलाशते रहे हैं। यह तलाश बचपन, जवानी और बुढापे तक बनी रहती है।
स्कील में श्रेष्ठता हासिल करने के मायने यह नहीं हो जाते ही वह व्यक्ति भी श्रेष्ठ हो गया, व्यक्ति का श्रेष्ठ होने का पैमाना उसकी मानसिकता पर निर्भर करता है। वह समाज का पोषण करता है अथवा शोषण। व्यक्ति की जैसी मानसिकता होगी वह उस स्कील का वैसा ही उपयोग करेगा।
महामंत्री उमेश गर्ग ने बताया कि खचाखच भरे सभागार में उपस्थित प्रबुद्धजनों के बीच उन्होंने कहा कि सह अस्तित्ववाद की अवधारणा अप्रासंगिक आदर्शवाद और भोगवादी भौतिकवाद से अलग है और नई है। सहअस्तित्ववाद एक ऐसा सुःखद रास्ता है जिसमें मानव अपने विकास के लिए दूसरे मानव या प्रकृति को बिना नुकसान पहुंचाए अनंत काल तक साथ रह सकता है।
वर्तमान शिक्षा बच्चों को 20-22 साल तक पढ़ाने के बाद भी उसके जीवन से जुडे समस्त सवालों के उत्तर दे पाती। माता पिता सामर्थ्य से अधिक बच्चों के लिए करते हैं, इसके बावजूद भी वे आश्वस्त नहीं रहते कि बुढापे में बेटा उनकी सारसंभाल करेगा अथवा नहीं। वजह साफ है कि आज की शिक्षा एक युवा को धन कमाने के योग्य तो बना देती है। उसे कितना और कैसे कमाना है और परिवार के संबंधों में कैसे जीना है, ये नहीं समझा पाती।
वर्तमान जीवन शैली, बदलता परिवेश तथा बदलता सामाजिक ढांचा संस्कारवान पीढी तैयार होने की गति को प्रभावित करता है। इंजीनियरिंग, अर्थशास्त्र और भौतिकी की अधिकांश पढ़ाई बच्चों को प्रकृति के संसाधनों को और ज्यादा मात्रा में काम में लेना सिखाती है। जबकि सच्चाई यह है कि प्रकृति के संसाधन सीमित है। मनुष्य की आवश्यकता असीम है, ऐसे में प्राकृतिक असंतुलन बढ रहा है। शिक्षा के स्तर का आलम यह है कि राजनीति विज्ञान पढ़कर कोई राजनीति नहीं कर सकता। छात्र भूगोल पढ़कर अपने खेत की मिट्टी को पहचान नहीं सकते।
उन्होंने उदाहरण देते हुए बताया कि बच्चे जिज्ञासु प्रवृति के होते हैं। उनकी ज्ञान की आवश्यकता अधिक तथा भौतिक आवश्यकता कम होती है। वर्तमान में महज दो साल की आयु का बच्चा भी माता पिता से सवाल करने लगता है। उसकी समझ इतनी अधिक विकसित होती है कि वह स्कूल जाने के साथ ही माता पिता और टीचर के बीच अंतर समझ जाता है। वह अभिभावकों की तुलना में टीचर को अधिक सम्मान देता है।
जीवन जीने की अपनी कल्पनाएं होती हैं। श्रेष्ठ जीवन वही है जो भौतिक सुविधाओं के साथ भावपूर्ण होकर जीया जाए। प्रकृति हमें संसाधन प्रदान करती है, बदले में हम उसे कुछ नहीं देते। हमारी प्रवृति दोहन की होती है। इंसान निशुल्क प्राप्त संसाधनों के उत्पादन में श्रम जोडकर कीमत तय कर लेता है। जीवन के लिए साधन जरूरी है, साधन का उपयोग करें ना कि दुरुपयोग। यही मायने में किसी चीज का सदुपयोग ही सुख है और दुरुपयोग ही दुख।
इससे पहले संस्था के जिला अध्यक्ष रमेश तापड़िया, कार्यक्रम के मुख्य संयोजक गिरधारी मंगल ने प्रबोधक सोम त्यागी का माला पहनाकर, शॉल ओढाकर व साफा बांधकर स्वागत किया। इस मौके पर आयोजन समिति के सदस्य कालीचरण खंडेलवाल, सुकेश खंडेलवाल, शंकर लाल बंसल, रमाकांत बालदी, अशोक पंसारी, कृष्णअवतार भंसाली, शिखरचंद सिंघी, नवीन मंत्री, हरिश गर्ग, अशोक जैन, शैलेन्द्र अग्रवाल, श्रीगोपाल बाहेती, जेके जैन, भारत भूषण बंसल, रेखा खंडेलवाल, विजयलक्ष्मी विजय आदि उपस्थित थे।