अजमेर। अजमेर में सूफी संत ख्वाजा मोईनुद्दीन हसन चिश्ती का 807वां सालाना उर्स शुक्रवार देर रात शाही महफिल के साथ शुरू हो गया।
इस मौके ख्वाजा साहब की मजार को पहला गुस्ल दिया गया और अकीदतमंदों ने ख्वाजा साहब की शान में सलाम पेश कर दुआ मांगी। महफिल की सदारत दरगाह दीवान जैनुअल आबेदीन ने की। कव्वालों ने ख्वाजा की शान में सूफियाना कलाम पेश किया।
छह दिन के लिए जन्नती दरवाजा भी खोला गया है। उर्स में भाग लेने के लिए बड़ी संख्या में अकीदतमंद कायड़ विश्राम स्थली पहुंच रहे है जहां दरगाह कमेटी जिला प्रशासन की ओर से उनके ठहरने के लिए माकूल इंतजाम किए गए हैं।
पीने के पानी एवं सस्ती दरों पर खाने के पैकेट के साथ अन्य जरुरी व्यवस्थाएं की गई है। कायड़ से दरगाह शरीफ जाने के लिए रोडवेज प्रबंधन की विशेष बसें संचालित हो रही है। पुलिस अधीक्षक कुंवर राष्ट्रदीप सिंह ने बताया कि पूरे उर्स के दौरान छह हजार से ज्यादा पुलिसकर्मियों को मेला क्षेत्र में तैनात किया गया है।
दरगाह शरीफ में निगाह बनाने के लिए सीसीटीवी कैमरों का भी इस्तेमाल किया गया है। रेल प्रबंधन भी उर्स के लिए उर्स स्पेशल ट्रेन चला रहा है। साथ ही दरगाह शरीफ में एक विशेष रेल काउंटर रिजर्वेशन एवं टिकट जारी करने के लिए खोला गया है।
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उल्लेखनीय है कि उर्स के मौके पर ख्वाजा साहब की पवित्र मजार पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, केन्द्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिहं, राजस्थान के राज्यपाल कल्याण सिंह की तरफ से चादर पेश की जा चुकी हैं और अन्य नेताओं एवं अकीदतमंदों की ओर से चादर चढ़ाने का सिलसिला चल रहा है।
ईरान के छोटे से कस्बे संजर के सीस्तान चिश्त नामक स्थान पर हिजरी संवत् 536 में जन्म लेने वाले मोइनुद्दीन हसन चिश्ती सूफी मत के प्रमुख प्रवर्तक बनकर ईरान से इतनी दूर हिंदुस्तान की अजमेर की पुण्य धरा को अपना कर्म क्षेत्र बनाया। ख्वाजा साहब ने अजमेर में रहकर अल्लाह की इबादत की और दुनिया के कोने कोने तक मानवता, शांति, भाईचारा, प्यार एवं मोहब्बत का पैगाम पहुंचाया।
मुस्लिम माह रजब की पहली तारीख को ख्वाजा साहब अपनी कोठरी (अब मजार शरीफ) में खुदा की इबादत करने चले गए। यह समय 1223 ईसवीं का बताया जा रहा है। कोठरी में जाते समय वह अपने मुरीदों को कहे गए कि उनकी इबादत में कोई खलल न डाले।
पांच दिन तक कोठरी से बाहर नहीं आने पर मुरीदों को चिंता हुई तो उन्होंने छठे दिन जब कोठरी का दरवाजा खोला तो मालूम चला कि वह अल्लाह को प्यारे हो गए। उनके इंतकाल की तिथि की सही जानकारी न होने के कारण उनकी याद में हर वर्ष छह दिवसीय उर्स मनाया जाता है।
इन छह दिनों में दरगाह शरीफ में कई धार्मिक रस्मों का निर्वह्न होता है जिसका आगाज भीलवाड़ा के गौरी परिवार के सदस्यों द्वारा दरगाह के बुलंद दरवाजे पर झंडा चढ़ाके किया जाता है। झंडे की रस्म के साथ उर्स की अनौपचारिक शुरुआत होती है। फिर रजब माह के चांद का इंतजार किया जाता है। चांद दिख जाए तो उसी रात से या अगले दिन से उर्स की विधिवत शुरुआत हो जाती है।
दरगाह के मुख्य निजाम गेट से अंदर 85 फुट ऊंचा बुलंद दरवाजा है और इसके अंदर दाईं और बाईं तरफ छोटी एवं बड़ी देग स्थापित है जिसमें अकीदतमंदों के लिए चावल पकाकर प्रसाद के रुप में वितरित किया जाता है। देगों के लिए अंजुमन की ओर से ठेका भी दिया जाता है जो वर्तमान में तीन करोड़ 30 लाख पांच हजार रुपए में छूटा है।
इसके अंदर दाएं हाथ की ओर महफिलखाना है, जिसे 1899 में हैदराबाद के नवाज वशीरुदिल्लाह ने बनवाया था। महफिलखाने से आगे मजार शरीफ आती है जहां जन्नती दरवाजा भी बना हुआ है जो पूरे साल में चार मौकों पर खोला जाता है। मान्यता है दरवाजे से निकलने पर अकीदतमंद को जन्नत नसीब होती है।
ख्वाजा के दरबार में बड़े बड़े मुस्लिम बादशाहों ने भी हाजिरी लगाई है। बादशाह अकबर इसके एक बड़े उदाहरण है। दरगाह शरीफ के गुंबद को उत्तर प्रदेश के रामपुर नवाब की ओर से स्वर्ण कार्य करा स्थापित किया गया था।
ख्वाजा साहब के चाहने वाले पूरे विश्व में फैले हुए है। उनकी शिक्षा आज भी प्रांसगिक है। यहां दरबार में हाजिरी लगाने वालों का मानना है कि ख्वाजा किसी की झोली खाली नहीं रखते और हर एक की मुरादें यहां पूरी होती है।