नई दिल्ली। ने कृत्रिम जीवन रक्षक प्रणाली पर जीने को मजबूर या मरणासन्न व्यक्तियों के लिए जीवन से मुक्ति का रास्ता खोलते हुए आज परोक्ष इच्छा-मृत्यु (पैसिव यूथेनेशिया) तथा जीवन संबंधी वसीयत (लिविंग बिल) को कानूनन वैध करार दिया।
मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायाधीश एके सिकरी, न्यायाधीश एएम खानविलकर, न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ और न्यायाधीश अशोक भूषण की संविधान पीठ ने सम्मान के साथ मृत्यु के अधिकार को भी मौलिक अधिकार करार दिया।
गैर-सरकारी संगठन कॉमन कॉज की याचिका पर सुनवाई करते हुए संविधान पीठ ने पैसिव यूथेनेशिया की अर्जी या लिविंग बिल पर अमल के लिए कुछ जरूरी दिशानिर्देश भी जारी किए हैं।
न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि जीवनरक्षक प्रणाली के सहारे मृत्युशैय्या पर लंबे समय से पड़े व्यक्ति पर यदि किसी दवा का कोई असर नहीं हो रहा हो या उसके जीवित रहने की कोई संभावना नजर नहीं रही हो, तो परोक्ष इच्छामृत्यु की अर्जी पर चिकित्सक और परिवार के सदस्य मिलकर निर्णय ले सकते हैं और इसके लिए किसी को भी हत्या का आरोपी नहीं बनाया जाएगा।
संविधान पीठ ने लिविंग बिल के संदर्भ में भी स्पष्ट किया है कि सम्मान के साथ मरने का अधिकार व्यक्ति का मौलिक अधिकार है। यदि कोई मरणासन्न व्यक्ति (टर्मिनली इल पर्सन) ने पहले से ही लिविंग बिल बना रखा है या कोई पहले से ही लिखित निर्देश (एडवांस डाइरेक्टिव) दे रखा है, साथ ही उसके ठीक होने की संभावना बिल्कुल क्षीण है तो इलाज कर रहा चिकित्सक और परिवार के सदस्य मिलकर जीवन रक्षक प्रणाली हटाने का फैसला ले सकते हैं ताकि व्यक्ति घिसट-घिसट कर मरने के बजाय सम्मान से मर सके।
शीर्ष अदालत ने कहा है कि नीम-बेहोशी की हालत में लंबे समय से बिस्तर पर पड़े वैसे मरीज, जिन्होंने जीवन संबंधी कोई वसीयत पहले से तैयार नहीं कर रखी है या कोई अग्रिम निर्देश नहीं दिया है, उन्हें भी चिकित्सकों और परिवार के सदस्यों की सहमति से जीवन रक्षक प्रणाली से हटाकर परोक्ष इच्छा मृत्यु दी जा सकती है और इसके लिए कोई भी व्यक्ति हत्यारोपी नहीं होगा।
संविधान पीठ ने जीवन से परेशान व्यक्ति के जहरीले इंजेक्शन या अन्य किसी तरीके से अपना प्राण त्यागने की इच्छा अर्थात एक्टिव यूथेनेशिया को इस फैसले से अलग रखा है। संविधान पीठ का कहना है कि यह आत्महत्या या सदोष हत्या की श्रेणी में आएगा, जिसकी इजाजत नहीं दी जा सकती।
कॉमन कॉज की ओर से जाने-माने वकील प्रशांत भूषण ने जिरह करते हुए कहा था कि दुनिया में कई ऐसे देश हैं जहां ‘टर्मिनेशन ऑफ लाइफ एक्ट’ मौजूद है और उनका लिविंग बिल संबंधी अनुरोध इसी के अनुरूप है। केंद्र सरकार ने हालांकि इसका पुरजोर विरोध किया था। संविधान पीठ ने गत वर्ष 11 अक्टूबर को फैसला सुरक्षित रख लिया था।
उल्लेखनीय है कि आम आदमी से जुड़ी विभिन्न मूलभूत समस्याओं के लिए वर्षों से लगातार संघर्ष कर रहे संगठन कॉमन कॉज ने लिविंग विल एंड एटर्नी ऑथराइजेशन (जीवन संबंधी वसीयत एवं प्रतिनिधि के अधिकार) से जुड़ा मुद्दा शीर्ष अदालत के समक्ष उठाया था।