नाम– लोकदेवता श्री पाबूजी।
पिता – श्री पाबूजी के पिता का नाम श्री धांधल जी था। ये जोधपुर के राठौड़ों के मूलपुरुष राव श्री सीहा जी के पौत्र और राव श्री आसथान जी के पुत्र थे।
जन्म दिनांक – ’राठौड़ां में खांप धांधलां री ख्यात’ के अनुसार श्री पाबूजी का जन्म भाद्रपद शुक्ला पंचमी वि.सं. 1276 (सन् 1219 ई.) को माना गया है। ’पाबू प्रकास’ के रचयिता महाकवि श्री मोडजी आषिया के अनुसार श्री पाबूजी का जन्म सम्वत् 1299 (सन् 1242 ई.) में हुआ।
जन्म स्थान– फलौदी के समीप कोळू गांव, जिला-जोधपुर।
विवाह- श्री पाबूजी का विवाह अमरकोट के राजा श्री सूरजमल जी सोढा की पुत्री सुपियारदे से हुआ था।
निर्वाण– श्री विष्वेष्वरनाथ रेउ एवं श्री मोड़जी आषिया के अनुसार श्री पाबूजी वि.सं. 1323 (सन् 1266 ई.) में वीरगति को प्राप्त हुए।
चारित्रिक विशेषताएं– लोक देवता श्री पाबूजी वीरता, गो-रक्षा, शरणागत- वत्सलता और नारी सम्मान जैसे महान् गुणों के कारण जन-जन की श्रद्धा एवं आस्था का केन्द्र है। श्री पाबूजी मात्र वीर योद्धा ही नहीं वरन् अछूतोद्वारक भी थे। उन्होंने अस्पृष्य समझी जाने वाली थोरी जाति के सात भाइयों को न केवल शरण ही दी अपितु प्रधान सरदारों में स्थान देकर उठने-बैठने और खाने-पीने में अपने साथ रखा। लोकदेवता श्री पाबूजी अपने वचन की पालना और गोरक्षा हेतु बलिदान हो गए। डिंगल के महान कवि श्री मोडजी आषिया ने ‘पाबू प्रकास-महाकाव्य’ नामक ग्रन्थ में वीर श्री पाबूजी के जीवन-चरित्र एवम् तात्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक घटनाओं का विस्तृत वर्णन किया है।
सामाजिक/ आध्यात्मिक योगदान- लोकदेवता श्री पाबूजी के शौर्यपूर्ण बलिदान की घटना ने लोकजीवन में साहस, गो-रक्षा और वचन प्रतिपालन जैसे महान् गुणों की प्रतिष्ठापना की। सोढ़ा राजकुमारी सुपियारदे से विवाह करने के लिए वे देवल देवी की घोड़ी काळवी मांगकर लेकर गए थे। देवल देवी ने उनसे वचन लिया था कि यह घोड़ी उनकी गायों की रक्षा करती है। अतः अगर मेरी गायों पर कोई संकट आए तो आप तत्काल इनकी रक्षा के लिए आएंगे।
जब सुपियारदे के साथ श्री पाबूजी के फेरे पड़ रहे थे तभी देवल देवी की गायों को जिन्दराव खींची द्वारा हरण कर लेने की ख़बर मिली। श्री पाबूजी एक क्षण की भी देर किए बिना फेरे अधूरे छोड़कर काळवी को लेकर गायों को बचाने पहुंच गए। वहां उन्होंने जिन्दराव खींची से युद्ध कर गायों को छुड़ा लिया और देवल देवी को सौंपने चल दिए।
तीन दिन की इन भूखी-प्यासी इन गायों को रास्ते में एक कुएं पर जब वे पानी पिला रहे थे तो इसी बीच जिन्दराव खींची ने इन पर पुनः आक्रमण कर दिया। इस संघर्ष में श्री पाबूजी अपने साथियों के साथ वीरगति को प्राप्त हुए। इस घटना के प्रभाव में श्री पाबूजी लोकदेवता के रूप में पूजे जाने लगे।
राजस्थान के लोक जीवन में ऊंटों के देवता के रूप में भी इनकी पूजा होती है। विश्वास किया जाता है कि इनकी मनौती करने पर ऊंटों की रुग्णता दूर हो जाती है। उनके स्वस्थ्य होने पर भोपे-भोपियों द्वारा ’श्री पाबूजी की पड़’ गाई जाती है। लोकदेवता के रूप में पूज्य श्री पाबूजी का मुख्य स्थान कोलू (फलौदी) में है। जहां प्रतिवर्ष इनकी स्मृति में मेला लगता है। इनका प्रतीकचिन्ह हाथ में भाला लिए अष्वारोही श्री पाबूजी के रूप में प्रचलित है।
भील जाति के लोग श्री पाबूजी को इष्ट देवता के रूप में पूजते हैं। एक विशेष भील जाति जिसे ‘पड़वाले भील’ कहते हैं, वे एक कपड़े पर श्री पाबूजी के कई कामों के चित्र बनाए रखते हैं। फिर उस चित्रमय लम्बे कपड़े को प्रदर्शित कर उसके आगे भील व भीलन रातभर श्री पाबूजी का गुणगान कर नाचते व फिरते हैं। जनता श्री पाबूजी को ईष्ट मानकर तन्मय होकर रात्री भर सुनते रहते हैं। वह चित्रमय कपड़ा ‘श्री पाबूजी की पड़’ कहलाता है। यह लोकगाथा के रूप में राजस्थान में प्रसिद्ध है।
धांधल जी राठौड़ों के अलावा थोरी भी उनके प्रमुख अनुयायी हैं, जो ’श्री पाबूजी की फड़’ गाने के अलावा सांरगी पर उनका यश भी गाते हैं। श्री पाबूजी के सम्बन्ध में प्रचुर साहित्य की रचना की गई है, जिससे उनके परवाड़े चाव से गाए-सुने जाते हैं।
आलेख: टीकम बोहरा
मुख्य कार्यकारी अधिकारी, राजस्थान धरोहर संरक्षण एवं प्रोन्नति प्राधिकरण