कोरोना की पृष्ठभूमि पर गत कुछ महीनों से त्योहार उत्सव मनाने अथवा व्रतों का पालन करने हेतु कुछ प्रतिबंध थे ।
यद्यपि कोरोना की परिस्थिति अभी तक पूर्णतः समाप्त नहीं हुई है, तथापि वह धीरे-धीरे पूर्ववत हो रही है। ऐसे समय त्योहार मनाते समय आगामी सूत्र ध्यान में रखें ।
त्योहार मनाने के सर्व आचार:
उदा हलदी,कुमकुम समारोह, तिलगुड देना आदि, अपने स्थान की स्थानीय परिस्थिति देखकर शासन.प्रशासन द्वारा कोरोना से संबंधित नियमों का पालन कर मनाएं।
हलदी:
कुमकुमका कार्यक्रम आयोजित करते समय एक ही समय पर सर्व महिलाओं को आमंत्रित न करेंए अपितु ४.४ के गुट में 15.20 मिनट के अंतर से आमंत्रित करें।
तिलगुडका लेन.देन सीधे न करते हुए छोटे लिफाफे में डालकर उसका लेन.देन करें।
4ण् आपस में मिलते अथवा बोलते समय मास्क का उपयोग करें।
किसीभी त्योहार को मनाने का उद्देश्य स्वयं में सत्त्वगुण की वृद्धि करना होता है। इसलिए आपातकालीन परिस्थिति के कारण प्रथा के अनुसार त्योहार.उत्सव मनाने में मर्यादाएं हैं, तथापि इस काल में अधिकाधिक समय ईश्वर का स्मरण, नामजप, उपासना आदि करने तथा सत्त्वगुण बढाने का प्रयास करने पर ही वास्तविक रूप से त्योहार मनाना होगा।
मकरसंक्रांति से संबंधित आध्यात्मिक विवेचन
त्योहार, उत्सव और व्रतों को अध्यात्मशास्त्रीय आधार होता है। इसलिए उन्हें मनाते समय उनमें से चैतन्य की निर्मिति होती है तथा उसके द्वारा साधारण मनुष्य को भी ईश्वर की ओर जाने में सहायता मिलती है। ऐसे महत्त्वपूर्ण त्योहार मनाने के पीछे का अध्यात्मशास्त्र जानकर उन्हें मनाने से उसकी फलोत्पत्ति अधिक होती है। इसलिए यहां संक्रांत और उसे मनाने के विविध कृत्य और उनका अध्यात्मशास्त्र यहां दे रहे हैं।
उत्तरायण और दक्षिणायन ः
इस दिन सूर्य का मकर राशि में संक्रमण होता है। सूर्यभ्रमण के कारण होनेवाले अंतर की पूर्ति करने हेतु प्रत्येक अस्सी वर्ष में संक्रांति का दिन एक दिन आगे बढ जाता है। इस दिन सूर्य का उत्तरायण आरंभ होता है । कर्क संक्रांति से मकर संक्रांति तक के काल को दक्षिणायन कहते हैं। जिस व्यक्ति की उत्तरायण में मृत्यु होती है, उसकी अपेक्षा दक्षिणायन में मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति के लिएए दक्षिण ;यमलोक में जाने की संभावना अधिक होती है ।
संक्रांतिका महत्त्व ः इस काल में रज.सत्त्वात्मक तरंगों की मात्रा अधिक होने के कारण यह साधना करनेवालों के लिए पोषक होता है।
तिलका उपयोग ः संक्रांति पर तिल का अनेक ढंग से उपयोग करते हैं, उदाहरणार्थ तिलयुक्त जल से स्नान कर तिल के लड्डू खाना एवं दूसरों को देना, ब्राह्मणों को तिलदान, शिवमंदिर में तिल के तेल से दीप जलाना, पितृश्राद्ध करना ;इसमें तिलांजलि देते हैं, श्राद्ध में तिलका उपयोग करने से असुर इत्यादि श्राद्ध में विघ्न नहीं डालते। आयुर्वेदानुसार सर्दी के दिनों में आने वाली संक्रांति पर तिल खाना लाभदायक होता है । अध्यात्मानुसार तिल में किसी भी अन्य तेल की अपेक्षा सत्त्वतरंगे ग्रहण करने की क्षमता अधिक होती है तथा सूर्य के इस संक्रमण काल में साधना अच्छी होने के लिए तिल पोषक सिद्ध होते हैं।
तिलगुड का महत्त्व ः तिल में सत्त्वतरंगें ग्रहण करने की क्षमता अधिक होती है । इसलिए तिलगुड का सेवन करने से अंतःशुद्धि होती है और साधना अच्छी होने हेतु सहायक होते हैं। तिलगुड के दानों में घर्षण होने से सात्त्विकता का आदान.प्रदान होता है।
हलदी.कुमकुम के पंचोपचार
हलदी.कुमकुम लगाना ः हलदी.कुमकुम लगाने से सुहागिन स्त्रियों में स्थित श्री दुर्गादेवी का सुप्त तत्त्व जागृत होकर वह हलदी.कुमकुम लगानेवाली सुहागिन का कल्याण करती है।
इत्र लगाना: इत्र से प्रक्षेपित होनेवाले गंध कणों के कारण देवता का तत्त्व प्रसन्न होकर उस सुहागिन स्त्री के लिए न्यून अवधि में कार्य करता है, उस सुहागिन का कल्याण करता है।
गुलाबजल छिडकन ः गुलाबजल से प्रक्षेपित होनेवाली सुगंधित तरंगों के कारण देवता की तरंगे कार्यरत होकर वातावरण की शुद्धि होती है और उपचार करनेवाली सुहागिन स्त्री को कार्यरत देवता के सगुण तत्त्व का अधिक लाभ मिलता है।
गोद भरन ः गोद भरना अर्थात ब्रह्मांड में कार्यरत श्री दुर्गादेवी की इच्छाशक्ति को आवाहन करना । गोद भरने की प्रक्रिया से ब्रह्मांड में स्थित श्री दुर्गादेवीची इच्छाशक्ति कार्यरत होने से गोद भरनेवाले जीव की अपेक्षित इच्छा पूर्ण होती है।
उपायन देन ः उपायन देते समय सदैव आंचल के छोर से उपायन को आधार दिया जाता है । तत्पश्चात वह दिया जाता है। ष्उपायन देना अर्थात तन, मन एवं धन से दूसरे जीव में विद्यमान देवत्व की शरण में जाना। आंचल के छोर का आधार देने का अर्थ है, शरीर पर धारण किए हुए वस्त्र की आसक्ति का त्याग कर देहबुद्धि का त्याग करना सिखाना। संक्रांति.काल साधना के लिए पोषक होता है। अतएव इस काल में दिए जाने वाले उपायन सेे देवता की कृपा होती है और जीव को इच्छित फलप्राप्ति होती है।