नई दिल्ली। मोबाइल फोन और लैपटॉप से निकलने वाली ब्लू वेवलेंथ (तरंग दैर्ध्य) स्वास्थ्य के लिए बेहद खतरनाक है और इनके साथ अधिक समय बिताने से मस्तिष्क और रेटिना की कोशिकाएं क्षतिग्रस्त हो सकती हैं तथा बुढ़ापे को असमय ‘न्यौता’ देती हैं।
अमेरिका की ऑरेगन स्टेट यूनिवर्सिटी के विशेषज्ञों ने अपने ताजा शोध में यह खुलासा किया है और चाहे अनचाहे इस नीले प्रकाश के जद में जी रही मानव जाति की नियति पर चिंता जतायी है। उनका दावा है कि प्राकृतिक प्रकाश के अलावा हर प्रकार की कृत्रिम रोशनी सेहत के लिए नुकसानदायक है। इनमें मोबाइल, लैपटॉप, कम्प्यूटर और अन्य उपकरणों से निकलने वाली नीली रोशनी के अलावा एलईडी ब्लब एवं ट्यूबलाइट से निकलने वाला दूधिया उजाला भी शामिल है।
राम मनोहर लोहिया अस्पताल के प्रोफसर (ईएनटी विशेषज्ञ) डॉ़ अशोक कुमार ने यूनीवार्ता से कहा, “मोबाइल फोन समेत तमाम वैज्ञानिक उपकरणों ने हमारे जीवन को नया आयाम दिया है लेकिन इनके लगातार तथा अधिक समय तक प्रयाेग करने का हमें खामियाजा भी भुगतना पड़ता है। अमेरिकी वैज्ञानिकों ने अपने नये शोध में साबित किया है कि ब्लू वेवलेन्थस् किस तरह मस्तिष्क और रेटिना की कोशिकाओं को नुकसान पहुंचा सकती हैं। हम आज कृत्रिम रोशनी और विद्युत चुंबकीय विकिरण (इलेक्ट्रो मैग्नेटिक रेडिएशन ) के साये में जी रहे हैं जो हमारी सेहत के लिए बेहद नुकसानदायक है।”
प्रोफेसर कुमार ने कहा,“ उपकरणों के सही उपयोग के प्रति जागरुकता नहीं होने से हमें भारी नुकसान उठाना पड़ सकता है। कुछ लाेगों को अधिकांश समय ईयरफोन लगाए देखा जा सकता है। ईयरफोन लगाकर गाना सुनने की आदत ज्यादातर स्कूल-कॉलेज के बच्चों और ऑफिस में काम करने वाले लोगी की होती है। वे लगातार इसका उपयोग करते हैं। आलम यह है कुछ लोग लिटरली कानों को ‘बंद’ करके सड़क भी पार करते हैं। कई ईयरफोन ऐसे होते हैं कि आप आवाज देते रहिए ,लोग सुनेंगे नहीं। इस दौरान सड़क हादसे की कई घटनाएं हुयी हैं।”
उन्होंने कहा कि देर तक ईयरफोन का उपयोग करने से मस्तिष्क तक आवाज पहुंचाने वाली कोशिकाएं गर्म होकर क्षतिग्रस्त होती हैं और उन्हें ठीक भी नहीं किया जा सकता। कान सिर्फ 65 डेसिबल तक की आवाज को सहन कर सकता है। लगातार तेज़ अवाज के संपर्क में रहने से हेयर सेल्स क्षतिग्रस्त होती हैं और कालांतर बहरेपन की समस्या से जूझना पड़ता है। उन्होंने कहा,“अगर आप लगातार 10 घंटे तक इयरफोन का इस्तेमाल करेंगे तो बहरेपन की शिकायत भी हो सकती है।
हेडफोन से निकलने वाली विद्युत चुम्बकीय तरंगे मस्तिष्क को गंभीर नुकसान पहुंचाती हैं। कुछ लोगों को रात में सोते हुए गाने सुनने की आदत होती है जिसका दिमाग पर बहुत बुरा असर पड़ता है। कुछ इसी तरह की बात हमारे ताजा शोध में आई है कि ब्लू वेवलेन्थस् हमारे मस्तिष्क और रेटिना की कोशिकाओं को गंभीर नुकसान पहुंचाती है। हमें सतर्क रहने की जरुरत है।”
‘एजिंग एडं मेकैनिज्म ऑफ डिजीज’में प्रकाशित शोध में कहा गया है कि वैज्ञानिकों ने ड्रॉसोफिला मेलानोगेस्टर (फलों पर बैठने वाली मक्खियां)पर अध्ययन के दौरान ब्लू वेवेलेन्थस् के हानिकारक प्रभावों को देखा है। अनुसंधानकर्ता प्रोफसर जे गिइबुल्टोविक्स की टीम ने बताया कि इन मक्खियों की सेलुलर(जीवकोषीय) और विकासात्मक (डिवेलप्मेन्टल) प्रक्रिया मनुष्यों और पशुओं से मेल खाती है, इसलिए इस शोध के लिए ये उपयुक्त थीं।
उन्होंने कहा, “इन मक्खियों का बायोलॉजिक क्लॉक का अध्ययन किया गया। इनके एक झुंड को 12 घंटे मोबाइल, टैबलेट्स, कम्प्यूटर आदि उपकरणों की ब्लू वेवलेन्थस् जैसी एलईडी लाइट में और 12 घंटे अंधेरे में रखा गया और दूसरे झूंड को ब्लू वेवलेंथस् फिल्टर्ड में रखा गया। हमें बेहद चौंकाने वाले परिणाम मिले।”
उन्होंने कहा,“नीली रोशनी में रखी गयीं मक्खियों के रेटिना और ब्रेन न्यूरोंस को क्षतिग्रस्त पाया गया। मक्खियां दीवार आदि पर बैठने समेत अपनी कई स्वभाविक क्रियाएं नहीं कर पायीं और शिशु मक्खियों की आंखें खुलने की प्रक्रिया रुक गयी। हमने यह भी देखा कि मौका मिलने पर मक्खियाें ने नीली रोशनी से शीघ्र अति शीघ्र भागने की कोशिश की।”
प्रोफसर गिइबुल्टोविक्स ने कहा,“ वैसे तो हर तरह की कृत्रिम रोशनी हमारी सेहत के लिए नुकसानदायक है लेकिन शोध के दौरान हमने देखा कि ब्लू वेवलेन्थस’ से मुक्त वातावरण के मुकाबले ब्लू वेवलेन्थस् वाले क्षेत्र में रखी गयीं मक्खियों की एजिंग प्रक्रिया तेज थी। हमारे इस शोध का निष्कर्ष मनुष्यों पर भी लागू हो सकता है।”
उन्होंने कहा,“ क्यों न हम हर संभव कोशिश करें कि ब्लू वेवलेन्थस् हमारे लिए ‘मायाजाल’न बने और इस तरह के उपकरणों के लंबे इस्तेमाल से स्वयं को सुरक्षित रखने के तमाम उपायों पर अमल करें।”
(डॉ़ आशा मिश्रा उपाध्याय)