सबगुरु न्यूज। पुरूष की अपूर्णता को पूर्ण करती हुई स्त्री वैवाहिक सम्बंध में बंधकर संतान को जन्म देती है और माता का पद धारण करती है। यहीं से कुल अर्थात वंश का निर्माण शुरू हो जाता है।
माता की भूमिका निभाते हुए स्त्री संतान का लालन पालन करती है और संतान को वैवाहिक सम्बंधों में बांधकर अपने कुल का विस्तार करती है। यह प्रकिया आगे जारी रहती है और प्रथम माता कुल की माता कहलाने लगती है।
प्राचीन काल में आर्थिक व्यवस्था का आधार खेती बाड़ी ही होती थी। फसलों के उत्पन्न होने के बाद धान का गल्ला व फसल बिक्री की धनराशि घर में आती थी इससे ही परिवार का लालन पालन होता था।
इस धान के गल्ले को देखकर घर की स्त्रियां और प्रथम माता या परिवार की जीवित बुजुर्ग माता खुशी से फूली ना समाती थी। घर के सभी सदस्य उस प्रथम माता या जीवित सबसे बुजुर्ग माता को आदर के देते हुए उसको हर प्रकार से प्रसन्न करते थे क्योंकि वह कुल की वंश वृद्धि करने वालीं माता ही थी।
समाज शास्त्र के आंगन पर यही माता कुल की माता मानी जाती थी। जैसे ही इस विशुद्ध समाजशास्त्र में ज्ञान व धर्म का प्रवेश हुआ तब मानव को एक ऐसे सवाल ने उलझा दिया कि इस जगत को किस शक्ति ने बनाया। बस यहीं से ईश्वरीय शक्ति की स्थापना हो गई और अदृश्य शक्ति को जगत की माता माना गया।
अदृश्य शक्ति को साकार रूप देते हुए मानव ने पिंड के रूप में शक्ति की आराधना की तथा उसे प्रसन्न रखने के लिए नौ रूपों, स्वरूपों को पूजा। इन्हीं नौ स्वरूपों को कुल की वृद्धि का कारण माना गया और अदृश्य शक्ति जगत की माता कहलाने लगी।
समाज शास्त्र मे परिवार की वंश वृद्धि करने वाली कुल माता का रूप शनैः शनैः बदल कर अदृश्य शक्ति की जगत माता के रूप में हो गया और वह अदृश्य शक्ति ही जगत का पालन करने वाली कुल की माता कहने लगी।
व्यक्ति जहां पर रहता था उस क्षेत्र की स्थापित अदृश्य शक्ति ही अलग अलग स्थानों के नाम से पूजित होने लगी और समाज उसे अपनी कुल देवी मानकर रबी व खरीफ की फसल के धान के गल्ले व नकद की उमंग में सदा इस अदृश्य शक्ति के रूप में पूजता रहा और खुशियों से नाचता गाता रहा।
संत जन कहते हैं कि हे मानव आठ तरह की सिद्धियों और नव तरह की निधियों को पाने के लिए तथा अदृश्य व रहस्यमयी शक्ति के रूप में सप्तमी को तथा आठ सिद्धियों की अष्टमी और नव निधि के कारण नवमी को इस अदृश्य शक्ति को कुल देवी के रूप मे पूजता रहा।
इसलिए हे मानव तू जगत की अदृश्य माता को कुल की दैवी की पूजा के साथ अपनी कुल की माता को भी उसी सम्मान के साथ श्रद्धा के रूप में मानता रह, क्योंकि जमीनी स्तर पर कुल में संतान को उत्पन्न वाली अपनी ही माता है जो अदृश्य शक्ति का साक्षात रूप है। बंसतीय व शारदीय रूप इसके स्वभाव के लाक्षणिक रूप है, दोनों रबी व खरीफ की फसल के स्वरूपों में।
सौजन्य : ज्योतिषाचार्य भंवरलाल, जोगणियाधाम पुष्कर