1 नवरात्रि का व्रत और पूजन
नवरात्र आरंभ तिथि के विषय में देवीपुराण में आगे दिया हुआ संदर्भ है।
अमायुक्ता न कर्तव्या प्रतिपत्पूजने मम।
मुहूर्तमात्रा कर्तव्या द्वितीयादिगुणान्विता।।
अर्थ : नवरात्रि का व्रत और पूजन अमावस्या युक्त प्रतिपदा को नहीं करना चाहिए। ऐसे समय प्रतिपदायुक्त द्वितीया से व्रत और पूजन करना श्रेयस्कर होता है।
2 कलश स्थापना
हस्त नक्षत्रयुक्त प्रतिपदा को कलश स्थापित करना उत्तम होता है|
3 हवन
अपनी कुल परंपरा के अनुसार अष्टमी अथवा नवमी को हवन करना चाहिए। तत्पश्चात अन्न ग्रहण (भोजन) करना चाहिए।
4 विसर्जन
इसी दिन संपूर्ण पूजा-सामग्री तथा देवी की प्रतिमा का विसर्जन करना चाहिए।
5 देवीपूजन
देवी की पूजा में हल्दी, कुमकुम, बेल आदि होना चाहिए। इस पूजा में तुलसी और दुर्वा वर्जित हैं।
6 देवी की उपासना
देवी उपासना के दो तरीके बताए जा रहे हें इनमें से किसी भी एक प्रकार से उपासना कर सकते हैं। पहला श्री दुर्गासप्तशती का पाठ करें तथा दूसरा प्रतिदिन श्रीसूक्त के 15 पाठ करें। उससे पूर्व एक माला सूर्यमंत्र का जप करे।
7 मंत्रजप
यदि गुरूदेव ने किसी भी देवी का मंत्र दिया हो, तो उसका प्रतिदिन एक माला जप रक्तचंदन के मोतियों से बनी माला से करें। दो मंत्रजपों में थोडा अंतर रखें।
जप करते समय भाव कैसा हो?
जप करते समय मैं ही अव्यय, अविनाशी भगवती हूं, ऐसा भाव रखें। यह अंतर जितना अधिक रख सकते हैं, उतना रखें, जिससे भाववृद्धि होती है और स्वयं ही जगदंबा हैं, ऐसी अनुभूति होती है। शक्ति-उपासक ऐसी ही उपासना करते हैं और अनुभूति लेते है; परंतु वे विनियोग, न्यास, मुद्रा आदि कठिन क्रिया पहले करते हैं। भगवती का सान्निध्य प्राप्त कर संपूर्ण देह मंत्रमय कर वे ऐसी उपासना करते हैं।
घट स्थापना का शास्त्रीय आधार व आध्यात्मिक परिणाम
1 नवरात्रि के प्रथम दिन घटस्थापना
घटस्थापना करना अर्थात नवरात्रि की कालावधि में ब्रह्मांड में कार्यरत शक्ति तत्त्व का घट में आवाहन कर उसे कार्यरत करना। कार्यरत शक्ति तत्त्व के कारण वास्तु में विद्यमान कष्टदायक तरंगें समूल नष्ट हो जाती हैं। कलश में जल, पुष्प, दूर्वा, अक्षत, सुपारी एवं सिक्के डालते हैं।
2 नवार्णव यंत्र की स्थापना का शास्त्रीय आधार
‘नवार्णव यंत्र’ देवी के विराजमान होने के लिए पृथ्वी पर स्थापित आसन का प्रतीक है । नवार्णव यंत्र की सहायता से पूजास्थल पर देवी के नौ रूपों की मारक तरंगों को आकृष्ट करना संभव होता है । इन सभी तरंगों का यंत्र में एकत्रीकरण एवं घनीकरण होता है । इस कारण इस आसन को देवी का निर्गुण अधिष्ठान मानते हैं । इस यंत्रद्वारा आवश्यकतानुसार देवी का सगुण रूप ब्रह्मांड में कार्यरत रहता है । देवी के इस रूप को प्रत्यक्ष कार्यरत तत्त्व का प्रतीक माना जाता है ।
3 नवार्णव यंत्रपर अष्टभुजा देवीकी मूर्ति स्थापित करनेके परिणाम
अष्टभुजा देवी शक्ति तत्त्व का मारक रूप हैं। ‘नवरात्रि’ ज्वलंत तेज तत्त्व रूपी आदि शक्ति के अधिष्ठान का प्रतीक है। अष्टभुजा देवी के हाथों में विद्यमान आयुध, उनके प्रत्यक्ष मारक कार्य की क्रियाशीलता का प्रतीक है। देवी के हाथों में ये मारक तत्त्व रूपी आयुध, अष्ट दिशाओं के अष्टपाल के रूप में ब्रह्मांड का रक्षण करते हैं। ये आयुध नवरात्रि की विशिष्ट कालावधि में ब्रह्मांड में अनिष्ट शक्तियों के संचार पर अंकुश भी लगाते हैं एवं उनके कार्य की गति को खंडित कर पृथ्वी का रक्षण करते हैं। शक्तितत्त्व के इस कार्य को वेग प्रदान करने में सहायक है।
4 नवरात्रि में अखंड दीप प्रज्वलन का शास्त्रीय आधार
नवरात्रि के प्रथम दिन घटस्थापना करते हैं। घट स्थापना करना अर्थात नवरात्रि की कालावधि में ब्रह्मांड में कार्यरत शक्ति तत्त्व का घट में आवाहन कर उसे कार्यरत करना। कार्यरत शक्ति कारण वास्तु में विद्यमान कष्टदायक तरंगें समूल नष्ट हो जाती हैं। कलश में जल, पुष्प, दूर्वा, अक्षत, सुपारी एवं सिक्के डालते हैं।
5 अखंड दीपप्रज्वलन
दीप तेज का प्रतीक है एवं नवरात्रि की कालावधि में वायुमंडल भी शक्ति तत्त्वात्मक तेज की तरंगों से संचारित होता है। इन कार्यरत तेजाधिष्ठित शक्ति की तरंगों के वेग एवं कार्य अखंडित होते हैं। अखंड प्रज्वलित दीप की ज्योति में इन तरंगों को ग्रहण करने की क्षमता होती है।
अखंड दीप प्रज्वलन के परिणाम
नवरात्रि की कालावधि में अखंड दीप प्रज्वलन के फलस्वरूप दीप की ज्योति की ओर तेज तत्त्वात्मक तरंगें आकृष्ट होती हैं। वास्तु में इन तरंगों का सतत प्रक्षेपण होता है। इस प्रक्षेपण से वास्तु में तेज का संवर्धन होता है। इस प्रकार अखंड दीप प्रज्वलन का लाभ वास्तु में रहने वाले सदस्यों को वर्षभर होता है। इस तेज को वास्तु में बनाए रखना सदस्यों के भाव पर निर्भर करता है।
6 नवरात्रि में माला बंधन के परिणाम
नवरात्रि में अखंड दीप प्रज्वलन के साथ कुलाचारानुसार माला बंधन करते हैं। कुछ उपासक स्थापित घट पर माला चढाते हैं, तो कुछ देवी की मूर्ति पर माला चढाते हैं। नवरात्रि में मालाबंधन का विशेष महत्त्व है।
देवता को चढाई गई इन मालाओं में गूंथे फूलों के रंग एवं सुगंध के कणों की ओर वायुमंडल में विद्यमान तेज तत्त्वात्मक शक्ति की तरंगें आकृष्ट होती हैं। ये तरंगें पूजास्थल पर स्थापित की गई देवी की मूर्ति में शीघ्र संक्रमित होती हैं। इन तरंगों के स्पर्श से मूर्ति में देवी तत्त्व अल्पावधि में जागृत होता है। कुछ समय के उपरांत इस देवी तत्त्व का वास्तु में प्रक्षेपण आरंभ होता है। इससे वास्तुशुद्धि होती है साथ ही वास्तु में आने वाले व्यक्तियों को उनके भावानुसार इस वातावरण में विद्यमान देवी के चैतन्य का लाभ मिलता है।
7 नवरात्रि में कुमारिका-पूजन का शास्त्रीय आधार
कुमारिका, अप्रकट शक्ति तत्व का प्रतीक है। नवरात्रि में अन्य दिनों की तुलना में शक्ति तत्व अधिक मात्रा में कार्यरत रहता है। आदिशक्ति का रूप मानकर भाव सहित कुमारिका-पूजन करने से कुमारिका में विद्यमान शक्ति तत्व जागृत होता है। इससे ब्रह्मांड में कार्यरत तेज तत्त्वात्मक शक्ति की तरंगें कुमारिका की ओर सहजता से आकृष्ट होने में सहायता मिलती है। पूजक को प्रत्यक्ष चैतन्य के माध्यम से इन शक्ति तत्त्वात्मक तरंगों का लाभ भी प्राप्त होने में सहायता मिलती है। कुमारिका में संस्कार भी अल्प होते हैं। इस कारण उसके माध्यम से देवीतत्त्व का अधिकाधिक सगुण लाभ प्राप्त करना संभव होता है। इस प्रकार नवरात्रि के नौ दिन कार्यरत देवीतत्त्व की त श्री देवीमां के आवाहन के लिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूं।
नवरात्र : देवी मां के विविध रूप
श्री दुर्गासप्तशति के अनुसार श्री दुर्गा देवी के तीन प्रमुख तीन रूप हैं।
महासरस्वती, जो ‘गति’ तत्त्वकी प्रतीक है।
महालक्ष्मी, जो ‘दिक्’ अर्थात ‘दिशा’ तत्त्व की प्रतीक है।
महाकाली जो ‘काल’ तत्त्वका प्रतीक है।
ऐसी जगत् का पालन करने वाली जगत्पालिनी, जगदोद्धारिणी मां शक्ति की उपासना हिंदु धर्म में वर्ष में दो बार नवरात्रि के रूप में विशेष रूप से की जाती है।
1. वासंतिक नवरात्रि : यह उत्सव चैत्र शुद्ध शुक्ल प्रतिपदासे चैत्र शुक्ल शुद्ध नवमी तक मनाया जाता है।
2 शारदीय नवरात्रि : यह उत्सव आश्विन शुक्ल शुद्ध प्रतिपदा से आश्विन शुक्ल शुद्ध नवमी तक मनाया जाता है।
नवरात्रि के प्रथम दिन घट स्थापना के साथ श्री दुर्गादेवी का आवाहन कर स्थापना करते हैं। इसके उपरांत देवी मां के नित्य पूजन के लिए पुरोहित की आवश्यकता नहीं होती। पूजाघर में रखे देवताओं के नित्य पूजन के साथ ही उनका पूजन करते हैं। देवी मां के स्नान के लिए फूल द्वारा जल प्रोक्षण करते हैं। इसके उपरांत देवी मां को अन्य उपचार अर्पित करते हैं। पूजन के उपरांत वेदी पर बोए अनाज पर जल छिडकते हैं।
नवरात्रि : घट स्थापना
घट स्थापना की विधि में देवी का षोडशोपचार पूजन किया जाता है। घट स्थापना की विधि के साथ कुछ विशेष उपचार भी किए जाते हैं। पूजा विधि के आरंभ में आचमन, प्राणायाम, देश काल कथन करते हैं। तदुपरांत व्रत का संकल्प करते हैं। संकल्प के उपरांत श्री महागणपति पू्जन करते हैं। इस पूजन में महागणपति के प्रतीक स्वरूप नारियल रखते हैं। व्रत विधान में कोई बाधा न आए एवं पूजा स्थल पर देवीतत्व अधिकाधिक मात्रा में आकृष्ट हो सकें इसलिए यह पूजन किया जाता है। श्री महागणपति पूजन के उपरांत आसन शुद्धि करते समय भूमिपर जल से त्रिकोण बनाते हैं। तदउपरांत उस पर पीढा रखते हैं। आसन शुद्धि के उपरांत शरीर शुद्धि के लिए षडन्यास किया जाता है। तत्पश्चात पूजा सामग्री की शुद्धि करते हैं।
घट स्थापना की सनातन विधि
पूजा स्थल पर खेत की मिट्टी लाकर चौकोर स्थान बनाते हैं। उसे वेदी कहते हैं।
वेदी पर गेहूं डालकर उस पर कलश रखते हैं।
कलश में पवित्र नदियों का आवाहन कर जल भरते हैं।
चंदन, दूर्वा, अक्षत, सुपारी एवं स्वर्णमुद्रा अथवा सिक्के इत्यादि वस्तुएं कलश में डालते हैं।
इनके साथ ही हीरा, नीलमणि, पन्ना, माणिक एवं मोती ये पंचरत्न भी कलश में रखते हैं।
पल, बरगद, आम, जामुन तथा औदुंबर ऐसे पांच पवित्र वृक्षों के पत्ते भी कलश में रखते हैं।
कलशपर पूर्णपात्र अर्थात चावल से भरा ताम्रपात्र रखते हैं।
वरुण पूजन के उपरांत वेदी पर कलश के चारों ओर मिट्टी फैलाते हैं।
इसके उपरांत मिट्टी पर विविध प्रकार के अनाज डालते हैं।
उसपर पर्जन्य के प्रतीक स्वरूप जल का छिडकाव करते हैं। अनाज से प्रार्थना करते हैं।
तदुपरांत देवी आवाहन के लिए कुंभ अर्थात कलश से प्रार्थना करते हैं, `देव-दानवों द्वारा किए समुद्र मंथन से उत्पन्न हे कुंभ, आपके जल में स्वयं श्रीविष्णु, शंकर, सर्व देवता, पितरों सहित विश्वेदेव सर्व वास करते हैं। श्री देवी मां के आवाहन के लिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूं।
घट स्थापना करने के पश्चात नवरात्रि व्रत का और एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
अखंडदीप – स्थापना की विधि
जिस स्थान पर दीप की स्थापना करनी है, उस भूमि पर वास्तुपुरुष का आवहान करते हैं।
जिस स्थान पर दीप की स्थापना करनी है, उस भूमि पर जल का त्रिकोण बनाते हैं। उस त्रिकोण पर चंदन, फूल एवं अक्षत अर्पण करते हैं।
दीप के लिए आधार यंत्र बनाते हैं।
तदुपरांत उसपर दीप की स्थापना करते हैं।
दीप प्रज्वलित करते है।
इस प्रज्वलित दीप का पंचोपचार पूजन करते हैं।
नवरात्रि व्रत निर्विघ्न रूप से संपन्न होने के लिए दीप से प्रार्थना करते हैं।
कुल की परंपरा के अनुसार इस दीप में घी अथवा तेल का उपयोग करते हैं। कुछ परिवारों में घी के एवं तेल के दोनों ही प्रकार के दीप जलाए रखने की परंपरा है।
देवताओं की स्थापना विधि
कलश से प्रार्थना करने के उपरांत पूर्णपात्र में सर्व देवताओं का आवाहन कर उनका पूजन करते हैं। तदुपरांत आवाहन में कोई त्रुटि रह गई हो, तो क्षमा मांगते हैं। क्षमा याचना करने से पूजक का अहं घटता है तथा देवताओं की कृपा भी अधिक होती है।
श्री दुर्गा देवी आवाहन विधि
कलशपर रखे पूर्णपात्र पर पीला वस्त्र बिछाते हैं।
उस पर कुमकुमसे नवार्णव यंत्र की आकृति बनाते हैं।
मूर्ति, यंत्र और मंत्र ये किसी भी देवताके तीन स्वरूप होते हैं। ये अनुक्रमानुसार अधिक सूक्ष्म होते हैं। नवरात्रिमें किए जाने वाले देवी पूजन की यही विशेषता है कि, इसमें मूर्ति, यंत्र और मंत्र इन तीनों का उपयोग किया जाता है।
सर्वप्रथम पूर्ण पात्र में बनाए नवार्णव यंत्र की आकृति के मध्य में देवी की मूर्ति रखते हैं।
मूर्ति की दाईं ओर श्री महाकाली के तथा बाईं ओर श्री महासरस्वती के प्रतीक स्वरूप एक-एक सुपारी रखते हैं।
मूर्ति के चारों ओर देवी के नौ रूपों के प्रतीकस्वरूप नौ सुपारियां रखते हैं।
अब देवी की मूर्तिमें श्री महालक्ष्मी का आवाहन करने के लिए मंत्रोच्चारण के साथ अक्षत अर्पित करते हैं।
मूर्ति की दाईं और बाईं ओर रखी सुपारियों पर अक्षत अर्पण कर क्रम के अनुसार श्री महाकाली और श्री महा सरस्वती का आवाहन करते हैं।
मूर्ति की दाईं ओर रखी सुपारिपर अक्षत अर्पण कर श्री महाकाली और बाईं ओर रखी सुपारि पर श्री महासरस्वती का आवाहन करते हैं।
तत्पश्चात नौ सुपारियोंपर अक्षत अर्पण कर नवदुर्गा के नौ रूपों का आवाहन करते हैं तथा इनका वंदन करते हैं।
श्री दुर्गादेवी का षोडशोपचार पूजन
अब देवी का षोडशोपचार पूजन किया जाता है। इसमें सर्वप्रथम देवी को अर्घ्य, पाद्य, आचमन आदि उपचार अर्पण करते हैं। इसके उपरांत देवी को पंचामृत स्नान कराते हैं। तदुपरांत शुद्ध जल, चंदन मिश्रित जल, सुगंधित द्रव्य मिश्रित जल से स्नान कराते हैं और अंत में श्री देवी मां को शुद्ध जल से महाभिषेक कराते हैं। उसके उपरांत देवी को कपास के वस्त्र, चंदन, सुहाग द्रव्य अर्थात हल्दी, कुमकुम, सिंदूर, अष्टगंध अर्पण करते हैं। काजल लगाते हैं। मंगलसूत्र, हरी चूडियां इत्यादि सुहाग के अलंकार, फूल, दूर्वा, बिल्वपत्र एवं फूलों की माला अर्पण करते हैं।