SABGURU NEWS | नयी दिल्ली दुनिया भर की रेलवे एवं परिवहन कर्मियों की यूनियनों ने भारतीय रेलवे को आगाह किया है कि परिवहन के इस साधन के पूर्ण या आंशिक निजीकरण के परिणाम विनाशकारी ही साबित होंगे इसलिए सरकारी निवेश के सहारे रेलवे के कायाकल्प का रास्ता सही होगा।
ऑल इंडिया रेलवेमेन्स फेडेरेशन (एआईआरएफ) द्वारा भारतीय रेलवे के निजीकरण और ढांचागत पुनर्गठन पर आज यहां आयोजित एक परिचर्चा में अंतरराष्ट्रीय परिवहन कर्मी महासंघ (आईटीएफ)के एक विशेषज्ञ दल के सदस्यों ने ये विचार व्यक्त किए। इस परिचर्चा में रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष अश्वनी लाेहानी भी शामिल हुए।
आईटीएफ दुनिया भर में परिवहन क्षेत्र में काम करने वाले कर्मचारियों का संगठन है जिसमें 147 देशों के करीब एक करोड़ 90 लाख सदस्य हैं। एआईआरएफ आईटीएफ के पुराने घटकों में से एक हैं और उसके महासचिव शिवगोपाल मिश्रा भी इस विशेषज्ञ दल के सदस्य हैं।
विशेषज्ञ दल में शामिल ब्रिटेन के एसोसिएटेड सोसाइटी ऑफ लोकोमोटिव इंजीनियर्स एंड फायरमैन सिमॉन वेलेर ने कहा कि वह लंदन ट्यूब्स में लोकोपायलट हैं। ब्रिटेन की रेल में सरकारी निजी साझेदारी (पीपीपी) के माध्यम से बहुत से क्षेत्रों में निजीकरण किया गया है। जिस समय निजीकरण किया गया था उस वक्त आय के जो लक्ष्य रखे गये थे, वे करीब डेढ़ दशक बीत जाने के बावजूद हासिल नहीं हो सके। इसके उलट अनुरक्षण एवं सेवाओं की गुणवत्ता में गिरावट आयी है। इससे ना तो उपभोक्ताअों को फायदा हुआ और ना ही कर्मचारियों को। उन्होंने कहा कि कर्मचारियों के रोज़गार की दशाएं बिगड़ीं हैं।
यूरोपियन ट्रांसपोर्ट वर्कर्स फेडेरशन की उप महासचिव सुश्री सेबाइन ट्रीयर ने कहा कि यूरोप में मालवहन में रेल एवं सड़क परिवहन में रेलवे की हिस्सेदारी करीब 25 प्रतिशत है जबकि 75 प्रतिशत माल सड़क से जाता है। हवाई एवं समुद्री मार्ग से मालवहन को भी जोड़ दिया जाए तो रेलवे की हिस्सेदारी केवल छह से सात प्रतिशत ही रह जाती है।
आईटीएफ की शहरी परिवहन समिति के अध्यक्ष अस्बजोर्न वाहफ ने कहा कि रेलवे या किसी भी सरकारी साधन में पीपीपी के माध्यम से निवेश सबसे महंगा सौदा होता है क्योंकि इसमें निवेश किये गये धन का ब्याज चुकाने के साथ साथ साझेदारी को मुनाफा भी मिलता है जबकि सरकारी निवेश करने पर केवल ब्याज ही जाता है लेकिन मुनाफा साझा करने की जरूरत नहीं रहती जिससे सेवाओं की लागत नियंत्रित रहती है। सेवाओं पर पूर्ण सरकारी नियंत्रण होने के नाते ट्रैक एवं ढांचागत अनुरक्षण दुरुस्त रहता है। जबकि व्यवहार में ब्रिटिश रेलवे की पीपीपी वाली परियोजनाओं में निजी साझीदार की इनमें कोई दिलचस्पी नहीं पायी गयी है।
अर्जेंटीना के अनुभव को साझा करते हुए देश की रेल कर्मचारियों की यूनियन के अध्यक्ष जूलियो अडोल्फो सोसा ने बताया कि वर्ष 1958 से 1989 के बीच अर्जेंटीना में नवउदारवाद की बयार में सभी नागरिक सेवाओं का निजीकरण कर दिया गया जिसमें रेलवे भी शामिल थी। वर्ष 1958 में देश में करीब शत प्रतिशत मालवहन रेलवे से होता था और रेललाइन की लंबाई सात हजार किलोमीटर से अधिक की थी। जो अब केवल 820 किलोमीटर बची है।
उन्होंने कहा कि निजी कारोबारियों ने ट्रैक की मरम्मत एवं रखरखाव पर ध्यान नहीं दिया जिससे पटरियां नष्ट हो गयीं और आज केवल बड़े शहरों में ही रेलवे ट्रैक चालू हालत में हैं। उन्होंने बताया कि अब नयी सरकार ने रेलवे को अपने हाथ में फिर से लिया है और उसके पुनर्गठन का कार्य शुरू हुआ है लेकिन पुरानी स्थिति बहाल करने में बहुत वक्त और पैसा लगेगा।
श्री मिश्रा ने कहा कि रेलवे के निजीकरण के विश्व भर में अनुभव अच्छे नहीं रहे हैं। इससे उपभोक्ताओं एवं कर्मचारियों दोनों को नुकसान हुआ है और कारोबारी लक्ष्य भी हासिल नहीं हुए हैं। कर्मचारियों की काम करने की दशाएं प्रभावित होने से प्रदर्शन पर भी असर पड़ा है। कुल मिला कर रेलवे का निजीकरण हर तरह से विनाशकारी साबित हुआ है। वह अपेक्षा करते हैं कि भारत के सत्ताधीशों को भी इन अनुभवों से सीखना चाहिए और सरकारी निवेश से रेलवे के आधुनिकीकरण के काम को आगे बढ़ाना चाहिए।