उषाकाल के मनभावन से,
चिड़ियों के चहचहाहट से
बैलों की घंटी बजने से,
उगते सूरज की लालिमा से
गोरी जाने लगी गांव से,
पानी भरकर पनघट से
घर में तुलसी पूजन से,
बच्चों की किलकारी से
फिर ऐसा कोई अपनों से,
मिलता नहीं कोई प्रेम से
लोग अपने अपनों से,
मिलते नहीं कई हफ्तों से
सूने पर पड़े चौपालों से,
बूढ़े बरगद के पेड़ से
बाग बगीचा सब सूने से,
घर मंदिर भी अधूरे से
ईर्ष्या द्वेष की झमेलों से,
घिरे रहते चुगल खोरों से
फिर ऐसा कोई अपनों से,
मिलता नहीं कोई प्रेम से
कभी कोई गांव में दिख जाने से,
बात अनसुना कर देने से
बड़े बूढ़ों के किनारे से,
अनदेखा कर निकलने से
मन में ठेस लगने से,
ये कैसी तस्वीरों से
कैसा है इनका संस्कारों से,
नाता इनका बनने से
फिर ऐसा कोई अपनों से,
मिलता नहीं कोई प्रेम से
इनकी ऐसी शिक्षा से,
अब ना कोई राम श्याम से
अब ना कोई ध्रुव प्रहलाद से,
सीख इनको मिली किस से
ना गीता ना रामायण से,
गूगल के गुल में जाने से
व्हाट्सएप के आने से,
डिलीट सब को करने से
फिर ऐसा कोई अपनों से,
मिलता नहीं कोई प्रेम से
सिद्धेश्वरी सराफ ‘शीलू’
जबलपुर