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political dominance of Mirdha family is getting impaired-मिर्धा परिवार का राजनीतिक प्रभुत्व होता जा रहा है क्षीण - Sabguru News
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मिर्धा परिवार का राजनीतिक प्रभुत्व होता जा रहा है क्षीण

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मिर्धा परिवार का राजनीतिक प्रभुत्व होता जा रहा है क्षीण
jyoti mirdha and richpal mirdha
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जयपुर। राजस्थान में आजादी से पहले मारवाड़ का नेतृत्व करने वाला मिर्धा परिवार का राजनीतिक प्रभुत्व अब धीरे धीरे क्षीण होता जा रहा हैं।

राज्य में आजादी से पहले बलदेवराम मिर्धा तथा उसके बाद उनके बेटा रामनिवास मिर्धा एवं उनके परिवार के नाथूराम मिर्धा के नेतृत्व में छह दशक तक अपना राजनीतिक प्रभुत्व रखने वाला मिर्धा परिवार अब अपना राजनीतिक प्रभुत्व बचाने के लिए संघर्ष को मजबूर हैं।

इस बार भी विधानसभा चुनाव में पूर्व विधायक एवं नाथूराम मिर्धा के भतीजे रिछपाल सिंह मिर्धा का टिकट कट गया। हालांकि कांग्रेस ने उनके पुत्र विजय पाल सिंह मिर्धा को डेगाना से पार्टी प्रत्याशी बनाया हैं लेकिन पार्टी ने रिछपाल तथा रामनिवास मिर्धा के पुत्र एवं पूर्व मंत्री हरेन्द्र मिर्धा सहित मिर्धा परिवार के अन्य किसी सदस्य को तरजीह नहीं मिली हैं।

नाथूराम मिर्धा की पोती एवं पूर्व सांसद ज्योति मिर्धा को भी इस बार चुनाव में कोई तरजीह नहीं मिली और बताया जा रहा है कि ज्योति मिर्धा पिछला लोकसभा चुनाव हारने के बाद से उन्हें पार्टी में तरजीह नहीं मिलने के कारण नाखुश हैं और इस बार विधानसभा चुनाव के लिए वितरित टिकट में भी उनकी कोई बात नहीं सुनी गई। ज्योति डीडवाना विधानसभा क्षेत्र से रामकरण पायली को कांग्रेस का टिकट दिलाना चाह रही थी लेकिन पार्टी ने उनकी यह राय भी नहीं मानी।

शुरु से कांग्रेस पार्टी के रुप में राजनीति में अपना वर्चस्व रखने वाला मिर्धा परिवार को वर्ष 2008 के चुनाव में डेगाना से रिछपाल मिर्धा के चुनाव हार जाने तथा पूर्व सांसद रामरघुनाथ का परिवार का नागौर की राजनीति में वर्चस्व बढ़ने के बाद पार्टी में तरजीह मिलना कम हो गया और वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में हरेन्द्र मिर्धा को पार्टी ने टिकट नहीं दिया।

इस पर हरेन्द्र मिर्धा बागी हो गए और निर्दलीय चुनाव लड़ा लेकिन चुनाव हार गए। इसके बाद पार्टी ने उन्हें निष्कासित भी किया और बाद में वापस पार्टी में शामिल भी कर लिया लेकिन आगे कोई तरजीह नहीं मिली। इसी तरह वर्ष 2008 एवं 2013 के चुनाव में रिछपाल मिर्धा भी डेगाना से चुनाव हार गए। रिछपाल मिर्धा को रामरघुनाथ के बेटे अजय सिंह किलक ने हराया। किलक लगातार दूसरी बार विधायक बनने पर भाजपा सरकार में मंत्री बने।

रिछपाल सिंह मिर्धा वर्ष 1990 में जनता दल के टिकट पर विधायक चुने गए और 1993 एवं 2003 में कांग्रेस प्रत्याशी तथा वर्ष 1998 में निर्दलीय उम्मीदवार के रुप में विधानसभा में पहुंचे। इसी तरह हरेन्द्र मिर्धा कांग्रेस के टिकट पर वर्ष 1980 में नागौर जिले की मूंडवा विधानसभा क्षेत्र से चुनाव जीता। वह राज्य सरकार में मंत्री भी बनाए गए। इस बार हरेन्द्र मिर्धा को पार्टी ने नागौर में कहीं तरजीह नहीं दी और नागौर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा छोड़कर फिर से पार्टी में आए विधायक हबीबुर्रहमान को टिकट दे दिया।

माना जा रहा है कि मिर्धा परिवार की आपसी फूट एवं रामरघुनाथ चौधरी परिवार के राजनीति में उभरने से मिर्धा परिवार का राजनीतिक प्रभुत्व अब समाप्त होने लगा हैं। हालांकि विजयपाल सिंह डेगाना से टिकट पाने में कामयाब रहे हैं और अपने परिवार की राजनीतिक साख बचाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उधर हरेन्द्र मिर्धा के बेटे रघुवेन्द्र मिर्धा जिला परिष्द सदस्य हैं लेकिन विधानसभा चुनाव के लिए उन्हें भी कोई जगह नहीं मिली।

उल्लेखनीय है कि बलदेवराम मिर्धा जोधपुर दरबार में पुलिस में डीआइजी थे और सेवानिवृत्त होने के बाद किसानों के हितों की रक्षा के लिए उन्होंने 1946 में मारवाड़ किसान सभा बनाई। कुछ दिनों बाद इसका कांग्रेस में विलय हो गया और यह परिवार कांग्रेस से जुड़ गया। इससे पहले मारवाड़ में कांग्रेस की कोई ज्यादा हैसियत नहीं थी।

बलदेवराम मिर्धा ने आजादी के बाद पहला चुनाव 1952 में डेगाना से लड़ा लेकिन वे हार गए थे। उनकी विरासत को उनके बेटे रामनिवास और उनके परिवार के नाथूराम मिर्धा ने संभाला और हालांकि इन दोनों में राजनीति क्षेत्र में एक-दूसरे के विरोधी भी रहे।

नाथूराम मिर्धा मारवाड़ किसान सभा से जुड़ने के बाद वर्ष 1952 में मेड़ता से कांग्रेस उम्मीदवार के रुप में चुनाव जीतकर विधायक बने। उसके बाद 1957 में नागौर से चुनाव जीता। इसके बाद 1962 में स्वतंत्र पार्टी से विधायक बने। वह 1985 में लोकदल से विधायक चुने गए। इस दौरान उन्हें मंत्री भी बनाये गये। नाथूराम मिर्धा राज्य के पहले वित्त मंत्री रहे हैं। वह लम्बे समय तक लोकसभा में सांसद भी रहे और इस दौरान केन्द्रीय मंत्री बने।

इसी तरह रामनिवास मिर्धा भी 1952 में नागौर से कांग्रेस उम्मीदवार के रुप में चुनाव लड़कर विधायक चुने गये। वह 1965 में जायल से उपचुनाव भी जीता। इससे पहले उन्होंने 1967 में लाडंनू से चुनाव जीता। वह 1957 से 1967 के बीच विधानसभा अध्यक्ष भी रहे। वह 1970 से 1980 के दशक में विभिन्न विभागों में केन्द्रीय मंत्री रहे तथा लोकसभा अध्यक्ष भी बनाए गए।

उधर, रामरघुनाथ चौधरी परिवार का भी नागौर जिले में राजनीतिक प्रभुत्व रहा और बढ़ता जा रहा है। चौधरी डेगाना से 1972, 1977, 1980 में कांग्रेस तथा 1985 में कांग्रेस (यू) से विधायक बने। वह 1998 में नागौर लोकसभा क्षेत्र से सांसद भी चुने गए।