सावन मास में भगवान शिव की विशेष पुजा की जाती हैं यानी पूरा महीना भगवान शिव को प्रसन्न करने के तरह तरह का जतन किया जाता हैं जिसे भोलेनाथ प्रसन्न होकर वरदान देते हैं । वैसे भगवान शिव जटाधारी हैं कानो में कुंडल, सिर पर चन्द्र एवं बालो से निकलती गंगा और त्रिनेत्र लिए कैलाश पर्वत पर विराजमान हैं तो आज लेख के कानों में कुंडल के बारे में बताने वाले हैं तो आइए जानें :-
शिव कुंडल : हिन्दुओं में एक कर्ण छेदन संस्कार है। शैव, शाक्त और नाथ संप्रदाय में दीक्षा के समय कान छिदवाकर उसमें मुद्रा या कुंडल धारण करने की प्रथा है। कान छिदवाने से कई प्रकार के रोगों से तो बचा जा ही सकता है साथ ही इससे मन भी एकाग्र रहता है। मान्यता अनुसार इससे वीर्य शक्ति भी बढ़ती है।
कानो में कुंडल धारण करने की प्रथा के आरंभ की खोज करते हुए विद्वानों ने एलोरा गुफा की मूर्ति, सालीसेटी, एलीफेंटा, आरकाट जिले के परशुरामेश्वर के शिवलिंग पर स्थापित मूर्ति आदि अनेक पुरातात्विक सामग्रियों की परीक्षा कर निष्कर्ष निकाला है कि मत्स्येंद्र और गोरक्ष के पूर्व भी कर्णकुंडल धारण करने की प्रथा थी और केवल शिव की ही मूर्तियों में यह बात पाई जाती है।
भगवान बुद्ध की मूर्तियों में उनके कान काफी लंबे और छेदे हुए दिखाई पड़ते हैं। प्राचीन मूर्तियों में प्राय: शिव और गणपति के कान में सर्प कुंडल, उमा तथा अन्य देवियों के कान में शंख अथवा पत्र कुंडल और विष्णु के कान में मकर कुंडल देखने में आता है।
रुद्राक्ष और शिव
रुद्राक्ष : माना जाता है कि रुद्राक्ष की उत्पत्ति शिव के आंसुओं से हुई थी। धार्मिक ग्रंथानुसार 21 मुख तक के रुद्राक्ष होने के प्रमाण हैं, परंतु वर्तमान में 14 मुखी के पश्चात सभी रुद्राक्ष अप्राप्य हैं। इसे धारण करने से सकारात्मक ऊर्जा मिलती है तथा रक्त प्रवाह भी संतुलित रहता है।