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Rahul Sankrityayan from Tibet in entrance beggar Manuscripts - भिखारी के वेश में राहुल सांकृत्यायन तिब्बत से लाये थे पांडुलिपियाँ - Sabguru News
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भिखारी के वेश में राहुल सांकृत्यायन तिब्बत से लाये थे पांडुलिपियाँ

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भिखारी के वेश में राहुल सांकृत्यायन तिब्बत से लाये थे पांडुलिपियाँ
Rahul Sankrityayan from Tibet in entrance beggar Manuscripts
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नयी दिल्ली । हिन्दी के प्रख्यात लेखक एवं चिन्तक महापंडित राहुल सांकृत्यायन तीस के दशक में एक भिखारी बनकर तिब्बत से हजारों दुर्लभ पांडुलिपियों को लेकर भारत आये थे ताकि बौद्ध धर्म का भारत में फिर से प्रचार प्रसार हो सके लेकिन आज तक देश में उन पांडुलिपियों पर कोई शोध कार्य नहीं हो पाया और उन्हें खोलकर देखा तक नहीं गया।

यह बात आज यहाँ श्री सांकृत्यायन की पुत्री जया सांकृत्यायन ने अपने पिता की 125वीं जयन्ती पर आयोजित राष्ट्रीय सेमिनार का उद्घाटन करते हुए कही जिसमें हिन्दी, राजनीति शास्त्र और इतिहास के शिक्षकों ने भाग लिया।

दिल्ली विश्वविद्यालय के आत्माराम सनातन धर्म कालेज में आयोजित इस सेमिनार में श्रीमती सांकृत्यायन ने यह भी कहा कि राहुल जी जमींदारों के खिलाफ संघर्ष में हजारीबाग़ जेल भेजे गए तो जलियांवाला बैग कांड के विरोध में बक्सर भेज दिए गए और हिन्दी की सेवा करने के लिए ही 15 अगस्त 1947 को आजादी मिलने के दो दिन बाद ही रूस से वापस हिंदुस्तान आ गये।

उन्होंने बताया कि उनके पिता नाना के क्रोध के कारण डर के मारे उनके 22 रुपये चुराकर 10 साल की उम्र में घर से भागकर 1903 में कोलकाता चले गए थे फिर बाद में वह पकड़कर गाँव लाये गये जहाँ उनका बाल विवाह कर दिया गया लेकिन उन्होंने इस विवाह को कभी नहीं माना।

वह अपने इलाके के पहले मिडिल क्लास व्यक्ति थे। स्वाध्याय से वह विद्वान और चिन्तक बने जिसके कारण श्रीलंका एवं रूस में शिक्षक बने। काशी में उन्होंने संस्कृत सीखी और काशी के पंडितों ने ही उन्हें महापंडित की उपाधि दी।

श्रीमती सांकृत्यायन ने कहा कि विक्रम विश्वविद्यालय से सातवीं-आठवीं सदी में बौद्ध धर्म की दुर्लभ पांडुलिपियाँ तिब्बत ले जाईं गयीं थे जिसमे कई मूल ग्रन्थ थे, उनके पिता उन मूल ग्रंथों की खोज में ही एक भिखारी का वेश धारण कर पैदल ही तिब्बत गए थे और 22 खच्चर पर ये ग्रन्थ और ताम्रपत्र लाये थे जो बिहार रिसर्च सोसायटी में संग्रहालय में पड़ी रहीं लेकिन उन ग्रंथों को खोलकर उन पर आज तक शोधकार्य नहीं हुआ।

उन्होंने कहा कि उनके पिता का सपना था कि नालंदा विश्वविद्यालय फिर से बने और बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार हो। वह बौद्ध धर्म को धर्म के रूप में नहीं देखते थे बल्कि संस्कृति के रूप में देखते थे। उनका मानना था कि संस्कृति स्थिर चीज़ नहीं है।

कालेज के प्राचार्य डॉ ज्ञान्तोश झा ने कहा कि राहुल जी को आखिर पाठ्यक्रमों से क्यों बाहर रखा गया, इस पर विचार होना चाहिए। अब उन पर विश्वविद्यालयों में शोध कार्य होने लगे हैं लेकिन कालेज के छात्रों को भी उनके बारे में पढ़ाया जाना चाहिए। उन्होंने कहा कि आज जब प्रतिगामी शक्तियां अधिक सक्रिय हैं तो ऐसे में राहुल जी के विचारों की अधिक जरूरत है।

सम्मेलन के अन्य सत्रों में प्रसिद्ध आलोचक डॉ मेनेजर पाण्डेय, जवाहर लाल नेहरू विश्विद्यालय के राजनीति शास्त्री डॉ मनीन्द्र ठाकुर, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के रामाज्ञा शशिधर, डॉ प्रदीप कान्त चौधरी आदि ने भी राहुल जी के बारे में अपने विचार व्यक्त किये।