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इन्दिरा गांधी ने देश के लोकतंत्र पर पहरा बैठा दिया था : सतीश पूनियां - Sabguru News
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इन्दिरा गांधी ने देश के लोकतंत्र पर पहरा बैठा दिया था : सतीश पूनियां

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इन्दिरा गांधी ने देश के लोकतंत्र पर पहरा बैठा दिया था : सतीश पूनियां

जयपुर। राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी के प्रदेशाध्यक्ष डाॅ. सतीश पूनियां ने कहा है कि 25 जून 1975 भारतीय लोकतांत्रिक इतिहास के काला अध्याय के रूप में पढ़ना चाहिए उस दिन देश के लोकतंत्र पर पहरा बैठा दिया गया था।

‘आपातकाल भारतीय राजनीति का काला अध्याय’ विषय पर डाॅ. सतीश पूनियां ने फेसबुक के माध्यम से संवाद करते हुए कहा कि ऐसे समय में राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने लिखा कि सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। यह प्रासंगिक और समसामयिक पंक्तियां लिखी थीं। हम सब जानते हैं कि भारत एक सुन्दर सा देश है, उसका समृद्ध इतिहास और परम्परा, संस्कृति, धर्म, इतिहास इन सब परिस्थितियों से रूबरू होता हुआ एक सुन्दर सनातन देश दुनिया का प्राचीन गणतंत्र गणराज्यों का उल्लेख करता है।

उन्होंने कहा कि हम सब जानते हैं कि 25 जून, यह काला दिन है। जवाहर लाल नेहरू देश के पहले प्रधानमंत्री बने, उसके बाद लाल बहादुर शास्त्री देश के प्रधानमंत्री बने। एक छोटे कद के स्वाभिमानी व्यक्ति ने जय जवान जय किसान के नारे को बुलंद करते हुए भारत के लोगों में एकता और स्वाभिमान का भाव जगाया। किन्तु काल की नियति ने लाल बहादुर शास्त्री को अचानक हमसे छीन लिया और इन्दिरा गांधी का आगमन हुआ। कहा जाता है कि जब इन्दिरा गांधी का आगमन हुआ तब उनको गूंगी गुड़िया कहा जाता था और यही गुड़िया तानाशाह बनीं।

उन्होंने कहा कि वर्ष 1971 में बहुत सारी बातों की सुगबुगाहट हो चुकी थी, लेकिन 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक निर्णय से भारतीय राजनीति में उथल-पुथल मच गई। इलाहाबाद उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने जो फैसला दिया, उसमें रायबरेली से इन्दिरा गांधी के निर्वाचन को रामनारायणजी की याचिका पर खारिज कर दिया, उनकी सदस्यता को निलम्बित कर दिया और यही कारण है कि इसके पीछे आपातकाल की बुनियाद रखी गई।

डाॅ. पूनियां ने कहा कि यदि विवेक होता तो शायद सुप्रीम कोर्ट के निर्णय का इंतजार करते और दूसरा कोई प्रधानमंत्री बन सकता था, किन्तु उस समय 70 के दशक में एक किस्म से देश में अराजकता की बुनियाद शुरू हो चुकी थी। उस दौरान मुंबई में 12 हजार हड़तालें हुईं।

गुजरात के मोरबी, अहमदाबाद में 1973 में मैस की फीस में बढ़ोतरी के लिए विद्यार्थियों ने आंदोलन किया। छात्रों ने विश्वविद्यालय के आदेश को मानने से इनकार कर दिया, जिसके उपरांत वहां पर सेना को बुलाना पड़ा। लखनऊ विश्वविद्यालय के छात्रों की फीस वृद्धि ने छात्रों को उद्वेलित किया।

डाॅ. पूनियां ने कहा कि इस तरह का संघर्ष चल रहा था और उस संघर्ष की शुरुआत बिहार से चल पड़ी थी। बिहार में जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में सरकार की भ्रष्टाचार के खिलाफ, महंगाई के खिलाफ अहिंसक आंदोलन की अपील की गई और गुजरात का नवनिर्माण आंदोलन और बिहार की समग्र क्रांति शामिल होते हुए पूरे देशभर में एक क्रांति का सूत्रपात हुआ।

इसलिए 25 जून 1975 को ही एक बड़ी रैली दिल्ली में हुई, उसको रोकने की कोशिश हुई और जब इतना सब कुछ हुआ तो इंदिरा गांधी आशंकित हुईं और उस आशंका के चलते 25 जून और 26 जून की मध्यरात्रि को आनन-फानन में जो संविधान में हमारे पूर्वजों ने हमें अधिकार दिया था, उन सब अधिकारों को निलम्बित कर दिया गया।

व्यक्ति को समानता का अनुच्छेद 19 व्यक्ति की स्वतंत्रता का, व्यक्ति का विचार का, आजादी का अधिकार देता है, उनको निलम्बित कर दिया गया। अधिकारों के निलम्बित होने के बाद देश में भय का वातावरण बना। लोगों को नजरबंद कर दिया गया, जेलों में पहुंच दिया गया।

डाॅ. पूनियां ने कहा कि 21 महीने तक भारी प्रताड़ना हुई, जिसमें सब बड़े नेता जेल चले गए। उस दौरान का एक प्रसंग आता है कि राज्यसभा में श्रद्धांजलि हो रही थी तो सुब्रम्ण्यम स्वामी ने श्रद्धांजलि के दौरान कहा ‘एक श्रद्धांजलि बाकी है, लोकतंत्र को भी श्रद्धांजलि दी जानी चाहिए’, क्योंकि लोकतंत्र की हत्या हो चुकी है। ऐसे ही कई प्रसंग हैं, लेकिन आपातकाल लागू हो चुका था, देश में भय का वातावरण था।

उन्होंने कहा कि कालांतर में नई पीढ़ी को इस आपातकाल के इतिहास को ठीक तरीके से पढ़ना चाहिए। कांग्रेस को छोड़कर सब विचारों के लोगों को प्रताड़ित किया गया। आजादी के बाद आपातकाल के बाद लोकतंत्र की रक्षा का एक बड़ा आंदोलन चला। आजादी के आंदोलन के बाद दूसरा बड़ा आंदोलन आपातकाल के दौरान हुआ।

आंदोलन के बाद भारत की राजनीति में एक बड़ा बदलाव आया, जो यह कहते थे कि राज केवल नेहरू और कांग्रेस ही कर सकती है, इस देश में शासन करने का अधिकार नेहरू गांधी परिवार को ही था, यह मिथक 1975 में टूटा, जब आपातकाल लगा।