अयाेध्या। उत्तर प्रदेश की पौराणिक नगरी अयोध्या में रामजन्मभूमि विवाद ने यूं तो 18वीं शताब्दी में ही जन्म ले लिया था लेकिन छह दिसम्बर 1992 को बाबरी विध्वंस के बाद देश भर में भड़के सांप्रदायिक दंगों ने यहां की गंगा जमुनी संस्कृति पर गहरा आघात किया जिससे आहत अमन पसंद अयोध्या पिछले करीब तीन दशकों से विवाद के खत्म होने की राह तक रही है।
उच्चतम न्यायालय में बुधवार को रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद की सुनवाई पूरी हो गई। पिछली छह अगस्त को शुरू हुई अंतिम सुनवाई 40 दिनों तक चली। इस दौरान हिंदू पक्ष की ओर से निर्मोही अखाड़ा, हिंदू महासभा, रामजन्मभूमि न्यास की ओर से दलीलें रखी गईं तो वहीं मुस्लिम पक्ष की तरफ से अधिवक्ता राजीव धवन ने अपनी दलीलें रखीं। अदालत ने इस मामले में अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है और एक माह के भीतर इस मामले में ऐतिहासिक फैसला आने की उम्मीद है जिसे फिलहाल दोनो पक्षों ने स्वीकार करने का भरोसा दिलाया है।
यहां दिलचस्प है कि विवादित रामजन्मभूमि विवाद ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी को जन्म दिया वहीं यह विवाद विश्व हिन्दू परिषद समेत कई हिन्दूवादी संगठनों के पंख फैलाने की वजह बना। वर्ष 1949 में पहली बार ये मामला अदालत में गया था जबकि वर्ष 1986 में फैजाबाद जिले की एक अदालत ने विवादित स्थल को हिंदुओं की पूजा के लिए खोलने का आदेश दिया जिसके विरोध में मुस्लिम समुदाय ने बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन किया।
वर्ष 1989 में विहिप ने विवादित स्थल से सटी जमीन पर राम मंदिर निर्माण की मुहिम शुरू की जबकि छह दिसम्बर 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्जिद ढहा दी गई। परिणामस्वरूप देश भर में भड़के सांप्रदायिक दंगों में करीब दो हजार लोगों की जानें गईं।
गौरतलब है कि अदालत की चौखट पर पहुंचे इस विवाद के समाधान की राह तकते दोनाें पक्षों की कई अहम हस्तियां परलोक सिधार गयी जिनमें विहिप अध्यक्ष अशोक सिंहल, रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष रामचन्द्र परमहंस दास और विवादित ढांचे के पैरोकार हासिम अंसारी प्रमुख हैं।
अतीत में झांके तो इतिहासकारों के मुताबिक 1853 में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच इस जमीन को लेकर पहली बार विवाद हुआ था हालांकि सात समंदर पार से देश को गुलामी की जंजीरों में जकड़ने आए अंग्रेजो ने 1859 में पूजा और नमाज के लिए मुसलमानों को अन्दर का हिस्सा और हिन्दुओं को बाहर का हिस्सा उपयोग में लाने को कहा। वर्ष 1949 में अन्दर के हिस्से में भगवान राम की मूर्ति रखी गई जबकि तनाव को बढ़ता देख सरकार ने इसके गेट में ताला लगा दिया।
30 अक्टूबर 1990 को तत्कालीन मुलायम सिंह यादव सरकार के शासनकाल में हजारों रामभक्तों ने अयोध्या में प्रवेश किया और विवादित ढांचे के ऊपर भगवा ध्वज फहरा दिया जबकि दो नवम्बर, 1990 को कारसेवकों पर गोली चलाई गई जिसमें कोलकाता के कोठारी बंधुओ समेत कई कारसेवक मारे गए। गोलीकांड के विरोध में चार अप्रैल 1991 को दिल्ली के वोट क्लब पर अभूतपूर्व रैली हुई जिसके चलते मुलायम सिंह यादव को इस्तीफा देना पड़ा।
सितम्बर, 1992 में भारत के गांव-गांव में श्रीराम पादुका पूजन का आयोजन किया गया और छह दिसम्बर को गीता जयंती के मौके पर रामभक्तों से अयोध्या पहुंचने का आह्वान किया गया। इसी रोज हजारों कार सेवकों ने बाबरी ढांचे को ढाह दिया, और टीले पर अस्थाई तौर पर रामलला की स्थापना कर दी। ढांचा ढहाए जाने के परिणामस्वरूप देश भर में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे जिसमें 2000 से ज्यादा लोगों की जान गई।
16 दिसंबर, 1992 को मस्जिद की तोड़-फोड़ की जिम्मेदार स्थितियों की जांच के लिए एमएस लिब्रहान आयोग का गठन हुआ। रामलला की दैनिक सेवा-पूजा की अनुमति दिए जाने के संबंध में अधिवक्ता हरिशंकर जैन ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में याचिका दायर की और एक जनवरी 1993 को अनुमति दे दी गई। तब से यहां दर्शन-पूजन का क्रम लगातार जारी है।
बहस के अंतिम दिन परासरण ने भावनात्मक दलीलें रखते हुए कहा था कि बाबर जैसे विदेशी आक्रांता को हिंदुस्तान के गौरवशाली इतिहास को ख़त्म करने की इजाज़त नहीं दी जा सकती। अयोध्या में राम मंदिर को विध्वंस कर मस्जिद का निर्माण एक ऐतिहासिक ग़लती थी, जिसे न्यायालय को अब ठीक करना चाहिए।
सुनवाई के दौरान हिंदू पक्ष के वकील परासरण एवं सी एस वैद्यनाथन और मुस्लिम पक्ष के वकील राजीव धवन के बीच तीखी नोकझोंक देखने को मिली थी। धवन की टोकाटोकी से परेशान वैद्यनाथन ने उन्हें अपनी ‘रनिंग कमेंट्री’ बंद करने को कहा तो धवन ने सख्त शब्दों में इस पर एतराज जाहिर किया। इसके बाद मुख्य न्यायाधीश ने दख़ल दिया।
मुस्लिम पक्ष ने कहा था कि यदि मस्जिद के लिए बाबर द्वारा इमदाद देने के सबूत नहीं हैं, तो सबूत राम मंदिर के दावेदारों के पास भी नहीं है, सिवाय कहानियों के। मुस्लिम पक्ष की ओर से पेश वकील धवन ने दलील दी कि 1855 में एक निहंग वहां आया, उसने वहां गुरु गोविंद सिंह की पूजा की और निशान लगा दिया था। बाद में सारी चीजें हटाई गईं। उसी दौरान बैरागियों ने रातोंरात वहां बाहर एक चबूतरा बना दिया और पूजा करने लगे।
उन्होंने बाबर की इमदाद के संबंध में उक्त बात तब कही थी जब संविधान पीठ के सदस्य न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने पूछा था कि क्या इस बात का कोई सबूत है कि बाबर ने भी मस्जिद को कोई इमदाद दी हो?
धवन ने कहा था कि ब्रिटिश हुकूमत के गवर्नर जनरल और फैज़ाबाद के डिप्टी कमिश्नर ने भी पहले बाबर के फरमान के मुताबिक मस्जिद की देखभाल और रखरखाव के लिए रेंट फ्री गांव दिए, फिर राजस्व वाले गांव दिए। आर्थिक मदद की वजह से ही दूसरे पक्ष का ‘प्रतिकूल कब्जा’ नहीं हो सका था। सन् 1934 में मस्जिद पर हमले के बाद नुकसान की भरपाई और मस्जिद की साफ-सफाई के लिए मुस्लिमों को मुआवजा भी दिया गया था।
उन्होंने दलील दी थी कि शीर्ष अदालत अनुच्छेद 142 के तहत मिली अपरिहार्य शक्तियों के तहत दोनों ही पक्षों की गतिविधियों को ध्यान में रखकर इस मामले का निपटारा करें। उन्होंने कहा था कि मस्जिद पर जबरन कब्जा किया गया। लोगों को धर्म के नाम पर उकसाया गया, रथयात्रा निकाली गई, लंबित मामले में दबाव बनाया गया। उन्होंने कहा कि मस्जिद ध्वस्त की गई और तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को अवमानना के चलते एक दिन की जेल भी काटनी पड़ी थी।
मुस्लिम पक्ष के वकील ने कहा था कि कोई भी अयोध्या को राम के जन्म स्थान के रूप में अस्वीकार नहीं कर रहा है। यह विवाद बहुत पहले ही सुलझ गया होता अगर यह स्वीकार कर लिया जाता कि राम केंद्रीय गुंबद के नीचे पैदा नहीं हुए थे। हिंदुओं ने जोर देकर कहा है कि राम केंद्रीय गुंबद के नीचे पैदा हुए थे। सटीक जन्म स्थान ही मामले का मूल है।
मुस्लिम पक्ष ने हिन्दू पक्ष के इस दावे का खंडन भी किया था कि बाबरी मस्जिद इस्लाम के स्थापित नियमों के खिलाफ थी, साथ ही उसने कहा था कि मोहरहित ‘निर्मोही’ और बैरागी को जमीन से मोह क्यों? मुस्लिम पक्षकार के वकील मोहम्मद निज़ाम पाशा ने कहा कि बाबरी मस्जिद वैध मस्जिद थी या नहीं, वहां वजू करने की व्यवस्था थी या नहीं, इसे इस्लाम के सिद्धांतों पर परखने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि सिर्फ यह देखे जाने की जरूरत है कि वहां के लोग इसे मस्जिद मानते थे या नहीं!
पाशा ने कहा था कि ‘निर्मोही’ का मतलब होता है मोह रहित और बैरागी का मतलब वैराग्य है। फिर भी ये लोग जमीन पर कब्जे की मांग पर अड़े हुए हैं! निर्मोही अखाड़े को संपत्ति से कोई लगाव नहीं होना चाहिए, लेकिन वे अब भी दावा करते हैं। इसलिए बहस धार्मिक पहलुओं पर आधारित नहीं होनी चाहिए, बल्कि कानूनी पहलू पर होनी चाहिए। उन्होंने दलील दी थी कि वज़ू को लेकर हदीस में कहा गया है कि यह बेहतर होगा कि वज़ू घर से करके मस्जिद आया जाये। इसलिए विवादित ढांचे पर वजू के लिए स्थान का न होना कोई बड़ी बात नहीं है।
हिन्दू पक्ष की दलील थी कि बाबरी मस्जिद में वज़ू करने की कोई जगह नहीं थी। उन्होंने जमाली कमाली मस्जिद, सिद्धि सईद मस्जिद का उदाहरण देते हुए कहा था कि उस मस्जिद में कोई गुम्बद नहीं है, पर जाली लगी हुई है जिसे ‘ट्री ऑफ लाइफ’ कहते हैं। यही नहीं वहां पर जो नक्काशी है उसमें पेड़ और फूल बने हुए हैं। हिन्दू पक्ष की यह भी दलील है कि विवादित जमीन की खुदाई में ढांचे के जो अवशेष मिले हैं उसमें पेड़ और फूल बने हैं जो मस्जिदों में नहीं होते।
एक मुस्लिम पक्ष ने कहा कि हिन्दुओं के पास केवल राम चबूतरे का अधिकार है। मोहम्मद फारुख की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता शेखर नाफडे ने संविधान पक्ष के समक्ष कहा था कि हिन्दुओं के पास उस स्थान का सीमित अधिकार है।
हिन्दुओं के पास चबूतरे का अधिकार तो है, लेकिन वे स्वामित्व हासिल करने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने कहा था कि हिंदुओं की ओर से लगातार अतिक्रमण की कोशिश की गई।
इससे पहले मुस्लिम पक्ष की वकील मीनाक्षी अरोड़ा ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की रिपोर्ट का जिक्र करते हुए कहा कि एएसआई रिपोर्ट ऑपिनियन और अनुमान पर आधारित है। पुरातत्व विज्ञान, भौतिकी और रसायन विज्ञान की तरह विज्ञान नहीं है। प्रत्येक पुरातत्व विज्ञानी अपने अनुमान और ओपिनियन के आधार पर नतीजा निकलता है।
अरोड़ा की तरफ से उठाए गए सवालों पर न्यायमूर्ति बोबड़े ने कहा कि हमें पता है कि पुरातत्व विभाग की तरफ से निष्कर्ष निकाले जाते हैं। यहां असली सबूत कौन दे सकता है? हम यहां इसी आधार पर निर्णय ले रहे हैं कि किसका अनुमान सटीक है और क्या विकल्प हैं..?