दशानन उवाच : दीर्घायु भव मृत्यु जगत
“समर से अमर नहीं हुआ जा सकता स्वामी। न आजतक कोई हुआ है और न कभी होगा।” मन्दोदरी ने जल पात्र देते हुए कहा।
गंभीर स्वर में दशानन ने मन्दोदरी को समझाते हुए कहा – “मोक्ष के लिए मूर्क्षित होने की आवश्यकता होती है। तप, तपस्या, तर्पण और तृप्ति हेतु मानव को मूर्क्षित अवस्था पहुंचने की आवश्यकता होती है। इसके उपरांत ही उपासक को अपने इष्ठ की प्राप्ति होती है।”
अपने आसन से उदिष्ट हो कर गवाक्ष से प्रकृति के सौंदर्य को आत्मसात करते हुए दशानन बोला – “हिम की कंदराओं में तप की मूर्क्षित अवस्था को प्राप्त होते ही जिस अनुपम सुख की अनुभूति हुई उसको शब्दों में प्रकट करना संभव नहीं है।…..उस सुखद पल भोग की झांकी संपूर्ण भी नहीं हुई थी कि परम श्रद्धेय ब्रह्मा जी ने स्वयं उपस्थित होकर कहा – ‘वत्स, आज तुम्हारी ज्ञान-विज्ञान की अंतिम परीक्षा संपन्न हुई।
संपूर्ण त्रिलोक जगत अत्यंत प्रसन्न हैं। पृथ्वी पर तुम जैसा शिष्य पाकर मैं, विष्णु और शिव इतनी अधिक सुखानुभूति में मंत्रमुग्ध हैं जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।’……जानती हो प्राणप्रिय, उस पर अनायास ही मेरी मुस्कुराहट गुंजायमान हो कर हिम के शांत वातावरण को भेदती हुई सर्वत्र व्याप्त हो गई थी। ब्रह्मा जी आश्चर्यचकित हो गये थे। मुझे समझ नहीं आया कि ऐसी धृष्टता मुझसे कैसे हुई।…..।”
फिर गहरी सांस लेकर मंदोदरी की ओर देखकर बोला – “मैं क्षमाप्रार्थी मुद्रा में करबद्ध निवेदन करने ही वाला था कि परम श्रद्धेय ब्रह्मा जी ने मुस्कुराते हुए कहा – ‘वर मांगो वत्स।’ मैं आश्चर्यचकित होकर परम श्रद्धेय को देखता रह गया। चिंतन मनन का अवसर नहीं था। परम श्रद्धेय मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। पुनः कहा – ‘वर मांगो वत्स।’ मैं श्रद्धानत था।”
मंदोदरी ने सहज भाव से कहा – “और आपने मोक्ष मांग लिया ?”
“नहीं प्राणेश्वरी।” दशानन ने तपाक से कहा। “नहीं, मैं आसक्त अवस्था में अवश्य था किन्तु तप की मूर्क्षित अवस्था से बाहर आकर चेतन अवस्था में आ गया था। इस ब्रह्माण्ड के अकूत संपत्ति के ज्ञान के रहस्यों को आत्मसात करने के बाद मोक्ष की अभिलाषा उस पल नहीं थी।….वह प्रथम अवसर था जब मैं पल भर के लिए मतिभ्रम के सभी स्वर्गीय अवधारणाओं को उपेक्षित कर अपने लिए वरदान में *”अमरत्व”* मांग बैठा।”
मंदोदरी ने आश्चर्यचकित हो कर कहा – “आप जैसे प्रकाण्ड विद्वान लोभ के वशीभूत हो जायेंगे तो मानव समुदाय को क्या संदेश जाएगा स्वामी ?”
“यह अज्ञानता की पराकाष्ठा है प्राणेश्वरी। संदेश तो भ्रामक हो गया है। भविष्य में यह एक परिहास का विषय होगा। कोई भी विश्वास नहीं करेगा कि दशग्रीव इतनी बड़ी धृष्ठता कैसे कर सकता है ?” गहरी सांस लेकर दशानन ने कहा – “किंतु परम श्रद्धेय ने मेरी इस धृष्ठता पर परिहास करने के स्थान पर मेरी शंका का निवारण करते हुए सहज भाव से कहा – ‘सृष्टि के किसी भी तत्व को अमरत्व प्राप्त नहीं है जल के अलावा। जो इस पृथ्वी पर जन्मा है उसका अंत सुनिश्चित है।’ परम श्रद्धेय ने मुझे आशीर्वाद देते हुए कहा था – ‘दशानन तेरा पराक्रम अजर-अमर रहेगा। तेरा उद्भव जिस विशेष उद्देश्य के लिए हुआ है उसकी परिणति भविष्य का अत्यंत सुखद है। तेरा दुरर्भाग्य यह है कि उस सुखद अनुभूति का लोकार्पण तू नहीं देख पायेगा।”
दशानन को सांत्वना देते हुए मंदोदरी ने सहजता से कहा – “स्वामी, मैं आपकी अर्द्धांगिनी हूं। आपके मोक्षवरण करने के उपरांत मैं उस सुखद अनुभव की साक्षी बनूंगी जो परम श्रद्धेय ब्रह्मा जी ने कल्पित की है। स्वर्ग वास के समय आपसे पल-पल की सुखानुभूति आपके साथ साझा करूंगी।”
हजारों- लाखों वर्ष के उपरांत पृथ्वी की परिवर्तित अवधारणा का अवलोकन करने के लिए दशानन और मंदोदरी प्रत्येक दशहरा की हार्दिक अनुभूति को आत्मसात करने के उद्देश्य से संपूर्ण पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं।
पृथ्वी पर पुष्प वर्षा करते हुए प्रसन्न भाव से मंदोदरी ने कहा – प्राणेश्वर, पृथ्वीवासी अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा भाव प्रदर्शित करने के लिए पाक्षिक श्राद्ध महापर्व के उपरांत एक और महोत्सव का आयोजन करते हैं। जिसे वह कहते हैं – *”बरसी”* । यह है आपका अमरत्व। यह महापर्व पृथ्वी के निवासी इसलिए धूमधाम से आयोजित करते हैं कि जिस तरह से आपने अपने अहम् को त्यागकर मोक्ष प्राप्त किया वैसे ही रह पृथ्वीवासी को यह सौभाग्य प्राप्त हो।”
दशानन मुस्कुराया और पुष्प वर्षा करते हुए कहा – दीर्घायु भव मृत्यु जगत।