नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक मोहन भागवत ने सोमवार को कहा कि उनका संगठन सत्ता या किसी व्यवस्था पर वर्चस्व कतई नहीं चाहता है और अगर कोई कहता है कि संघ के वर्चस्व से कुछ हुआ है तो यह संघ की हार है।
भागवत ने यहां विज्ञान भवन में ‘भविष्य का भारत: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का दृष्टिकोण’ विषय पर अपनी व्याख्यानमाला के प्रथम चरण में संघ एवं हिन्दुत्व के बारे में अपने विचार रखे। उन्होंने अपने उद्बोधन में यह भी साफ किया कि संघ स्वतंत्रता संग्राम का समर्थक और गांधीजी के आचार-विचार का प्रशंसक रहा है और राष्ट्रीय तिरंगे को राष्ट्रध्वज चुने जाने पर स्वयंसेवकों ने उसे लेकर परेड निकाली थी।
सरसंघ चालक ने कहा कि महिलाओं को लेकर संघ में कोई भेदभाव नहीं है। संघ के पौने दो लाख से अधिक प्रकल्पों में सभी मिलजुल कर काम कर रहे हैं। उन्होंने कहा कि डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने इसी विचार को रख कर सात आठ साल तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक मंडल के नाम से विभिन्न प्रयोग करने के बाद हिन्दू शक्ति और समाज को संगठित करने के लिए संघ का बीजारोपण किया था। संघ की शाखाएं लोगों में अच्छे आचरण की आदतें विकसित करने का काम करतीं हैं।
उन्होंने बताया कि डॉ. हेडगेवार की स्वतंत्रता आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका थी। क्रांतिकारियों के साथ संबंधों के बावजूद उनका नेताजी सुभाष चंद्र बोस, पं. जवाहरलाल नेहरू आदि नेताओं से भी संपर्क था। उन्होंने गांधीजी के बारे में कहा था कि बापू के उच्चकोटि के त्याग और देश के प्रति उनकी सेवा का अनुकरण करे बिना काम नहीं चलेगा।
भागवत ने बताया कि लाहौर में कांग्रेस के अधिवेशन में संपूर्ण स्वतंत्रता की घोषणा में तिरंगे को राष्ट्रध्वज चुने जाने पर डॉ. हेडगेवार ने एक परिपत्र निकाल कर देश भर में भेजा था कि तिरंगे के साथ पथ संचलन (परेड) निकाला जाए। स्वतंत्रता के सभी प्रतीकों को स्वयंसेवक पूरा सम्मान दें।
सरसंघचालक ने सत्ता एवं व्यवस्था पर वर्चस्व कायम करने की प्रवृत्ति के अारोपों का खंडन करते हुए कहा कि हम कहीं भी संघ का डोमिनेशन (वर्चस्व) नहीं चाहते। संघ के डोमिनेशन से कुछ हुआ तो यह संघ की पराजय होगी। उन्होंने कहा कि सामान्य लोगोंं के परिश्रम और उनकी सामूहिक शक्ति से परिवर्तन आना चाहिए।
संघ को यह मंजूर नहीं है कि संघ आ गया तो ऐसा हो गया। उन्होंने कहा कि संघ में सामूहिकता कदम-कदम पर दिखाई देती है। संघ चेहराविहीन रहना चाहता है ताकि लोगों में अहंकार ना पैदा हो। सत्ता में कौन बैठेगा यह समाज देखे। हमको तो केवल यह चिंता है कि समाज का आचरण कैसा बनेगा।
सरसंघचालक ने कहा कि संघ का उद्देश्य सफल राष्ट्र के लिए सुयोग्य समाज का निर्माण है और समाज बनाने के लिए व्यक्ति निर्माण जरूरी और यही कार्य संघ 1925 से करता आ रहा है। उन्होंने कहा कि संघ की स्थापना के पहले विचार आया था कि समाज को बदले बिना स्थायी परिवर्तन नहीं अा सकता है।
शासन के परिवर्तन से कुछ नहीं होता। देश के लोगों में देश के प्रति विश्वास पैदा करने की आवश्यकता है और इसके लिए लोकशक्ति का जागरण करना पड़ेगा। विविधता भरे समाज में हर जगह स्थानीय संस्कृति के नायक खड़े करने पड़ेंगे जो मूल्य आधारित आचरण से लोगों को प्रेरित करें।
भागवत ने कहा कि संघ ने जिस हिन्दू समाज को संगठित करने की बात की, वह विविधता और मिलजुल कर साथ रहने वाला, संयम, त्याग एवं कृतज्ञता के मूल्यों पर चलने वाला समाज है जो शास्त्रार्थ और खंडन मंडन से आगे बढ़ता है। वह किसी की समाप्ति नहीं चाहता बल्कि आचरण से जीयो एवं जीने दो के मंत्र पर चलता है।
उन्होंने कहा कि हिन्दू के लिए परहित सरीखा श्रेष्ठ धर्म नहीं है और परपीड़ा समान कोई पाप नहीं है। चित्त से शुद्ध और विकार से मुक्त सबका रक्षण करने वाला और संतोष, स्वाध्याय एवं ईश साधना में रत रहता है।
उन्होंने कहा कि इन मूल्यों को प्रतिध्वनित करने के लिए हिन्दू शब्द का प्रयोग संघ करता है और मानता है कि बाहर से आए धर्म इस्लाम एवं ईसाइयत को मानने वाले लोगों में भी यही मूल्य दिखाई देते हैं। उन्होंने कहा कि देश का पराभव दरअसल इन मूल्यों को भूलकर आचरण करने के कारण हुआ है।
उन्होंने कहा कि संघ का हिन्दु समाज को संगठित करने का संकल्प किसी मत का विरोध करना नहीं था बल्कि वह मानता है कि भेदरहित, स्वार्थमुक्त समाज ही स्वतंत्रता और स्वतंत्र राष्ट्र के परमवैभव की गारंटी है। ईमानदारी और अनुशासन से सभ्य जीवन राष्ट्र के लिए जीना आना चाहिए। देश के लिए मरने वाले लोग भी उसी समाज से आएंगे जिसे देश के लिए जीना आता हो।
सरसंघचालक ने कहा कि संघ को हर गांव हर गली में अच्छे आचरण वाले विश्वासास्पद स्वयंसेवक एवं ऐसे स्वयंसेवकों की टोलियां खड़ा करने के अलावा कुछ नहीं करना है जिन्हें समाज का विश्वास अर्जित हो। यह किसी वर्ग विशेष का संगठन नहीं है।
उन्होंने कहा कि संगठित और मूल्यों पर दृढ़ समाज जो भी करना चाहे, करे। उस पर संघ को कुछ नहीं करना है। संघ एक मुक्त संगठन है जहां प्रत्येक स्वयंसेवक को अपने मत रखने का अधिकार है जिस पर सभी स्तरों पर विचार किया जाता है। ऐसे ही विचार विमर्श से अखिल भारतीय कार्यक्रम भी बनते हैं।
उन्होंने कहा कि संघ एक स्वावलंबी संगठन है और यह केवल साल में एक बार गुरुदक्षिणा के रूप में आने वाले धन से चलता है। पर यह किसी से चंदा नहीं लेता। हर वर्ष मार्च से जुलाई तक खर्च चलाने में दिक्कत आती है। उन्होंंने यह भी स्पष्ट किया कि संघ भगवा ध्वज को गुरू मानता है लेकिन राष्ट्र ध्वज के रूप में तिरंगे को चुने जाने के बाद संघ से उसे भी आरंभ से पूरा सम्मान दिया।