भारतीय राजनीतिक क्षेत्र की बहुत बड़ी हानि हुई है। अपने राजनीतिक विचार के प्रति प्रतिबद्धता कायम रखते हुए भी खुले मन से सभी से, राजनीतिक विरोधियों से भी मिलने की परंपरा अब लुप्त होती दिखती है। भारत में विभिन्न विचार के लोग एकत्र आकर खंडन-मंडन, विचार-विमर्श करने की प्राचीन परंपरा रही है। आजादी के पूर्व की कांग्रेस भी स्वातंत्र्य प्राप्ति के उद्देश्य से एकजुट विविध विचार-छटाओं (shades ) का एक मंच हुआ करता था। यह जो राजनीतिक असहिष्णुता और वैचारिक अस्पृश्यता आज दिख रही है, यह वामपंथी विचार की देन है। अपने वामपंथी विचार से विपरीत विचार करने वालों को अपने विचार व्यक्त करना तो दूर, जीने का भी अधिकार नहीं है, ऐसा ही दुनिया भर के वामपंथ का चरित्र और इतिहास रहा है।
जब स्वर्गीय प्रणव दा ने संघ के कार्यक्रम में आने की स्वीकृति दी, तब इसका खूब विरोध हुआ। वे संघ के कार्यक्रम में शामिल न हों, इसलिए तरह तरह के हथखंडे अपनाए गए. यहां तक कि प्रणव दा की पुत्री को भी प्रणव दा के खिलाफ़ मैदान में उतारा गया। वास्तव में प्रणव दा एक गंभीर, ज्येष्ठ, अनुभवी, परिपक्व राजनेता रहे हैं और वे संघ में जुड़ने के लिए नहीं, अपने सुविचारित विचारों को स्वयंसेवकों और नागरिकों के बीच रखने के लिए आने वाले थे। उनके हितचिंतक और उन्हें जानने वालों को उन पर विश्वास होना चाहिए था कि वे एकदम नए श्रोत्रवृंद के सम्मुख अपने (कांग्रेसी ही समझिए) विचार रखने वाले थे पर कांग्रेसियों को उन पर भरोसा नहीं हुआ।
संघ के चतुर्थ सरसंघचालक श्री रज्जु भैय्या उत्तर प्रदेश प्रयागराज से ही थे। उनके लाल बहादुर शास्त्री जी से घनिष्ठ सम्बन्ध थे। जब शास्त्री जी उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय थे, तब एक बार सरसंघचालक श्री गुरूजी की उपस्थिति में कुछ गणमान्य लोगों के लिए चायपान का कार्यक्रम आयोजित हुआ था। श्री रज्जु भैय्या ने शास्त्री जी को इस का निमंत्रण दिया, तब शास्त्री जी ने कहा कि मैं आना चाहता हूं, पर नहीं आऊंगा कारण, मेरे वहां आने से कांग्रेस में मेरे बारे में तरह-तरह की बातें शुरू हो जाएंगी। इस पर श्री रज्जु भैय्या ने पूछा कि – शास्त्री जी! आप जैसे व्यक्ति के बारे में भी लोग ऐसी बातें करेंगे? तब उन्होंने कहा – अरे! आप नहीं जानते राजनीति क्या होती है। इस पर श्री रज्जु भैय्या ने कहा कि हमारे यहां ऐसा नहीं है, यदि कोई स्वयंसेवक मुझे आपके साथ देखता है तो सोचेगा कि रज्जु भैय्या शास्त्री जी को संघ समझा रहे होंगे।
ठीक भी है! यह विश्वास अपने नेता के बारे में रहना ही चाहिए। अपने वैचारिक अधिष्ठान पर दृढ़ रह कर खुले मन से दूसरों के दृष्टिकोण और विचारों को समझने का खुला भावात्मक वातावरण ही तो लोकतंत्र का आधार होता है।
भारत में राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय इने-गिने ही लोग अब दिखते हैं. राजनेता तो खूब दिखते हैं. पर राष्ट्रीय राजनीति (राष्ट्रहित सर्वोपरि की राजनीति) के स्थान पर, अधिकतर नेता दलगत राजनीति, साम्प्रदायिक राजनीति, जातिगत राजनीति, प्रादेशिक (sectarian) राजनीति या परिवार की ही राजनीति में सक्रिय दिखते हैं। नेतृत्व के सारे गुण एक परिवार में ही वंश परम्परा से कैसे आ सकते होंगे, इसका मुझे हमेशा आश्चर्य होता रहा है और ये सभी लोकतंत्र की रक्षा करने की दुहाई देते रहते हैं। सर्वाधिक प्राचीन दल के लोग कर्तृत्वहीन और अनुभव हीन व्यक्ति में नेतृत्व के सारे गुण कैसे देख सकते हैं, अपेक्षा करते हैं यह तो महान आश्चर्य है।
इसलिए दलीय हानि-लाभ से ऊपर उठकर राष्ट्रहित में राजनीति करने वाले कम हो रहे हैं। प्रणव दा ऐसे नेता थे। उनका इस समय चले जाना इसलिए अधिक खलता है। वे जब वित्त मंत्री थे, तब भी भारत के पड़ोसी देशों के बारे में अपनी जानकारी और समझ बढ़ाने के लिए वे अन्यान्य विचारों के जानकार- निष्णात लोगों से निःसंकोच परामर्श करते थे। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए और सशक्त राजनीति के लिए यह उपयोगी है, इसलिए प्रणव दा का संघ के कार्यक्रम में आने के लिए स्वीकृति देना, राष्ट्रहित में सक्रिय इस सतत वर्धमान, देशव्यापी और बहु आयामी विशाल संगठन को देखना, उसे समझना इसका महत्व समझने के लिए भी वैसी दृष्टि और क्षमता चाहिए. इसे समझना कुछ लोगों की समझ से परे है।
श्री क.मा. मुंशी पंडित नेहरू मंत्रीमंडल में मंत्री रहे। वे संघ को जिस तरह देख सके, वह केवल राजनीति करने वालों की समझ से बाहर है। उसके लिए राष्ट्रीय राजनीति की दृष्टि चाहिए। राजनीति में सक्रिय रहते हुए, संघ के राजनीति से दूर रहने के निर्णय का सकारात्मक संज्ञान लेना, उसे समझना और उसकी प्रशंसा करने के लिए भी वैसी प्रतिभा चाहिए. मुंशी जी के ‘Pilgrimage to Freedom’ पुस्तक में उन्होंने संघ बारे में लिखा है –
I attended a rally of the Rashtriya Swayamsevak Sangh which we, Congressmen, had looked upon as an ‘unseeable’ pariah. I was struck by the discipline, determination and the spirit of selflessness which characterises its members. It had no financial backing behind it and no leaders of all-India fame to give it a status, and yet it functioned efficiently on an emotional bond.
I met M. S. Golwalkar, the Guruji of the RSS. Whatever our differences in political aims and methods, I could not help admiring the dedicated life he lived, his great power of organisation and his skill in building up the RSS, at the same time resisting the temptation to throw it into the vortex of politics. (Pilgrimage to Freedom, P.86 by K.M.Munshi)
प्रणव दा के निधन के बाद उन पर लिखे गए एक मराठी लेख में लेखक ने लिखा कि – कांग्रेस को प्रणव दा जैसे अनुभवी व्यक्ति की जब आवश्यकता थी, तभी उन्होंने कांग्रेस से दूर जाकर संघ से नजदीकी बना ली। उनका संकेत प्रणव दा के संघ के कार्यक्रम में जाने से था। मुझे उस लेखक की बुद्धि पर दया आई। प्रणव दा दूर कहां गए, वे तो वहीं थे और वहीं हैं। कांग्रेस ने राष्ट्रीय विचार से, राष्ट्र सर्वोपरि की राजनीति से और प्रणव दा सरीखे विचारकों से खुद दूरी बना ली..! यह कांग्रेस का गलत कदम था।
कांग्रेस ऐसे ही कमजोर होती जा रही है और ऐसा ही रवैया रहा तो और कमजोर होती जाएगी। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को विचार करना चाहिए कि उसे डॉ. मुंशी और प्रणव दा की समावेशी दृष्टि से अनुप्राणित होना है अथवा उसे वामपंथियों से उधार ली गई असहिष्णुतापूर्ण सोच को ओढ़े रखना है।
प्रणव दा के होने का मोल समझने के लिए वैसी योग्यता भी चाहिए। छोटे-छोटे स्वार्थ की ओछी राजनीति करने वाले दलगत स्वार्थ से ऊपर उठकर राष्ट्रीय राजनीति करने वालों का महत्व नहीं समझ सकेंगे क्योंकि जिस वैचारिक-कुल के वे हैं, वहां आज तक ऐसा हुआ ही नहीं. हाथी की शिकार करने की परम्परा सिंह की रही है, सियार तो उसकी कल्पना भी नहीं कर सकता है।
प्रणव दा के संघ के कार्यक्रम में उपस्थित रहने का महत्त्व न समझने वाले, केवल अपनी स्वार्थी राजनीति की कूपमंडूक दृष्टि रखने वालों का वर्णन “गजस्तत्र न हन्यते” इस उक्ति में कर सकते हैं, उसका सन्दर्भ एक कहानी में है।
एक बार एक सिंहनी जंगल में सियार के एक नवजात बच्चे को वात्सल्य भाव से अपने साथ ले आती है। कालांतर से उस सिंहनी के भी दो बच्चे होते हैं। यह सियार और सिंहनी के बच्चे साथ-साथ भाई-भाई के समान बड़े होते हैं। एक बार तीनो बच्चे जंगल में एक हाथी को आते देखते हैं। सियार तुरंत डर कर कहता है – अरे! चलो! भागो! हाथी आ रहा है। तब वे सिंह के बच्चे सोचते हैं कि हाथी पर चढ़ाई करनी चाहिए। सियार तो इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता कि हाथी पर चढ़ाई भी हो सकती है! वह घर आकर अपनी मां को, सिंहनी को अपने भाइयों के दुस्साहस की शिकायत करता है। कहता है – ऐसा पागलपन कैसे कोई सोच सकता है!
इस पर सिंहनी उसे कहती है कि – हे पुत्र! तुम शूर हो, कृतविद्य और दर्शनीय भी हो। पर, (इस में तुम्हारा दोष नहीं है) जिस कुल में तुम्हारा जन्म हुआ है, उसमें हाथी का शिकार कभी हुआ ही नहीं है. इसलिए हाथी का शिकार क्या होता है, यह तुम जन्मभर भी नहीं समझ सकोगे।
शूरोऽसि कृतविद्योऽसि दर्शनियोऽसि पुत्रक | यस्मिन् कुले त्वमुत्पम्न्नः गजस्तत्र न हन्यते ||
मुंशी जी, प्रणव दा, डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद, डॉक्टर राधाकृष्णन, पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे राष्ट्रीय राजनीति करने वालों के कार्य को आंकने के लिए भी वैसी कुव्वत चाहिए. यह दलीय, साम्प्रदायिक, जातिगत, प्रादेशिक, पारिवारिक राजनीति करने वालों की समझ से परे है। इसे समझने वाले और उनका अनुसरण कर ऐसा राष्ट्रीय आचरण करने वाले अधिक लोग तैयार हों, यही प्रणव दा जैसे राष्ट्रीय नेता के लिए सुयोग्य श्रद्धांजलि होगी. प्रणव दा अब हमारे बीच नहीं हैं। प्रणव दा चिरायु हों। ऐसे लोग बढ़ते रहें, फलते रहें, फूलते रहें, फैलते रहें। (Pranab da is no more. Long live Pranab da.) May his tribe increase and flourish.
डॉ. मनमोहन वैद्य
सह सरकार्यवाह, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ