जोधपुर। राष्ट्र जीवंत सत्ता है और यहां की नदियां और पहाड़ भी इसके अभिन्न अंग है। इन्हीं के साथ भारतीय जीवन मूल्य और साहित्य प्रवाहित होते हैं। भाषा, संस्कृति और समाज का अतिमहत्वपूर्ण अंग है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद की विचार प्रणाली ने हमको हमारी सांस्कृतिक परम्परा से विमुख कर दिया है, इस समय ऐसे साहित्य को बढ़ावा देने की आवश्यकता है।
इस तरह के कई विचार अखिल भारतीय साहित्य परिषद के तत्वावधान में आयोजित वेबिनार में व्यक्त किए गए। वेबिनार के संयोजक जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के प्रो. नरेन्द्र मिश्र ने बताया कि दो दिवसीय अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी का विषय ‘शिक्षा, साहित्य एवं संस्कृतिः जीवन मूल्य’ था।
उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि कपिलवस्तु विश्वविद्यालय, सिद्धार्थ नगर (यूपी) के कुलपति प्रो. सुरेन्द्र दुबे, अध्यक्ष अखिल भारतीय साहित्य परिषद के राष्ट्रीय संगठन मंत्री व वरिष्ठ साहित्यकार श्रीधर पराडकर, बीज वक्ता केन्द्रीय हिन्दी संस्थान आगरा के निदेशक प्रो. नंदकिशोर पांडेय और विशिष्ट अतिथि विश्व हिन्दी सचिवालय, मारीशस के महासचिव डॉ. विनोद मिश्र थे।
वेबिनार में उदयपुर से डॉ इंदुशेखर तत्पुरुष ने कहा कि साहित्य समाज का दर्पण है यह अधूरी बात है, साहित्य इससे आगे की वस्तु है। मुम्बई से प्रोफेसर करुणा शंकर उपाध्याय ने कहा कि साहित्य को समाज मंगल का विद्यालय माना गया है। उदयपुर से डॉ आशीष सिसोदिया ने कहा कि साहित्य संस्कृति की जलती हुई मशाल है और जन समूह का चलचित्र भी है।
दिल्ली के डॉ दर्शन पांडे ने भी साहित्य और समाज के संबंधों के बारे में समझाया। सागर के डॉ आनंद प्रकाश त्रिपाठी ने कहा कि साहित्य का केवल दर्पण होना पर्याप्त नहीं है समस्याओं में से सकारात्मक समाधान दृष्टि देना भी आवश्यक है। बीकानेर के डॉ अन्नाराम शर्मा ने कहा कि भारतीय समाज का आदर्श है जो कमाएगा वो खिलाएगा।
लखनऊ से प्रोफेसर सूर्य प्रसाद दीक्षित ने कहा कि समाज ही साहित्य का लक्ष्य और स्रोत है। लखनऊ से प्रो. अलका पांडे ने कहां कि साहित्य समाज का बिंब प्रतिबिंब का संबंध होता है। जयपुर से डॉ केशव शर्मा ने कहा कि हमारी सनातन संस्कृति के समझने के लिए साहित्य का अध्ययन आवश्यक है।
प्रो. चितरंजन मिश्र कहा कि साहित्य में वर्तमान और भविष्य के सपने, आत्मस्वीकृति, आत्मा की खोज, आत्मा विस्तार, आत्मा परिष्कार, आत्मा संस्कार, आत्मा सामाजिक व्यवहार होता है।