दरभंगा । संस्कृत के विद्वानों ने आचार्य शोभाकांत जयदेव झा के हिंदी से अनूदित उपन्यास ‘कंकाल’ को विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल किये जाने की आज मांग की।
संस्कृत विश्वविद्यालय के कुलानुशासक डॉ. सुरेश्वर झा ने साहित्यिक एवं सांस्कृतिक विचार मंच ऋचालोक के तत्वावधान में आयोजित ‘कंकाल’ के लोकार्पण समारोह को संबोधित करते हुये कहा कि अनूदित पुस्तक पाठ्यक्रम में शामिल किया ही जाना चाहिए ताकि छात्र संस्कृत भाषा सीख भी सकें और इसकी खूबियों से भी अवगत हो सकें। उन्होंने कहा कि आचार्य झा ने हिन्दी से अनुवाद कर उपन्यास को नया जीवन भी दिया है, क्योंकि संस्कृत ही वह भाषा है जो अपने मूल रूप में सैकड़ों साल बाद भी जीवित है।
डॉ. झा ने कहा कि विश्व की बहुत सारी भाषाएं जो संस्कृत की समकालीन थीं वे या तो मृत हो गई हैं या मृतप्राय हैं जबकि संस्कृत आज भी पूर्व रूप में जीवित है। उन्होंने अनुवाद को प्रामाणिक प्रकाश स्तंभ की संज्ञा दी और कहा कि हिंदी के मुहावरों का भी आचार्य ने बड़ी ही कुशलता से सहज अनुवाद किया है। उन्होंने कहा कि पुस्तक में संस्कृत शब्दों का अर्थ देकर सामान्य पाठक का उपकार किया है।
इस मौके पर समीक्षक एवं हिंदी साहित्य के विद्वान डॉ. प्रभाकर पाठक ने कहा कि आचार्य ने पुस्तक का भावानुवाद किया है। जैसे इस पुस्तक के माध्यम से आचार्य ने रचनाकार जयशंकर प्रसाद का साक्षात्कार किया है। उन्होंने अनुवाद के लिए मात्र भाव ग्रहण नहीं किया है बल्कि भाववर्द्धन भी किया है। धार्मिक, सामाजिक व सांस्कृतिक परंपरा में आ रहे ह्रास के ‘कंकाल’ को आचार्य ने अनुवाद के लिए इसलिए चुना ताकि इसका निदान हो सके। नारी की वेदना ने भी आचार्य का ध्यान आकृष्ट किया होगा।
संस्कृत विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति डॉ. देवनारायण झा ने कहा कि आचार्य शोभाकांत जयदेव झा उद्भट विद्वान के साथ ही साधक, तपस्वी और भविष्यद्रष्टा भी थे। वे गुरुजी के नाम से संबोधित एवं आदरणीय थे। उन्होंने कहा कि अनुवाद सरल एवं सरस भाषा में किया गया है। प्रवाहपूर्ण शैली में किया गया अनुवाद संस्कृत के अध्येताओं के लिए काफी उपयोगी सिद्ध होगा।
उन्होंने कहा कि आचार्य की स्मृति को संजोने के लिए उनकी मूर्ति स्थापित की जानी चाहिए। उन्होंने मूर्ति के लिए अपनी ओर से 21 हजार रुपए देने की घोषणा भी की। वहीं, डॉ. लक्ष्मीनाथ झा ने कहा कि आचार्य कुशल वक्ता, अध्यापक एवं विमल विद्या के स्वामी थे। वे कई पीढ़ी के गुरू रहे। उन्होंने कहा कि लोकार्पित पुस्तक किसी भी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम के लिए उपयुक्त होगा।
संस्था के महासचिव डॉ. अमलेन्दु शेखर पाठक ने कहा कि वर्ष 1929 में लिखित उपन्यास का आचार्य ने वर्ष 1961 में अनुवाद किया था। इसे डाॅ. उमारमण झा के संपादन में प्रकाशित किया गया है। उन्होंने आचार्य को वर्तमान पीढ़ी के लिए प्रेरक एवं मार्गदर्शक बताया। डॉ. फूलचंद्र मिश्र रमण ने समाज में व्याप्त कुरीति एवं छुआछूत जैसी भावनाओं को दरकिनार करने के लिए स्वयं आगे आने के प्रसंग का जिक्र करते हुए कई संस्मरण रखे।
इस मौके पर मुख्य अतिथि पूर्व कुलपति डॉ. उपेंद्र झा वैदिक तथा विशिष्ट अतिथि पूर्व कुलपति डॉ. विद्याधर मिश्र व संस्कृत शोध संस्थान के निदेशक डॉ. देवनारायण यादव ने आचार्य के व्यक्तित्व पर प्रकाश डालते हुए अनुवाद की उत्कृष्टता से अवगत कराया।