अजमेर। यूं तो इस देश में घोटाला और घोटालेबाजों की शरारतों और शतिराना अंदाजों पर आए दिन समाचार माध्यमों के जरिए हर आम और खास रूबरू होता है। इससे इतर लेखक एवं पूर्व बैंकर वेद माथुर ने व्यंग्य उपन्यास ‘बैंक आॅफ पोलमपुर‘ के जरिए समूचे बैंकिंग सिस्टम में व्याप्त खामियों को रोचक अंदाज और सटीक शब्दावली की माला में पिरोकर पेश किया है।
खुद माथुर अपने अनुभवों के जरिए बताते हैं कि भारतीय बैंकों से ‘विलफुल‘ डिफाल्टरों द्वारा की गई खरबों रुपए की लूट रोकने, वसूली करने तथा दोषियों को जेल भेजने के लिए नए कानूनों और त्वरित न्याय प्रणाली की जरूरत है। डूबत ऋणों, धोखाधड़ी एवं घोटालों से बैंक खोखले हो चुके हैं तथा इनकी स्थिति हमारी सोच से भी कई गुना ज्यादा खराब है।
‘बैंक आॅफ पोलमपुर‘ के लोकार्पण और लेखक से संवाद कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने कहा कि बैंकों में जोखिम प्रबन्धन की मौजूदा प्रणाली को भी दुरुस्त किए जाने की जरूरत है। बैंकों में आज आदमी के खून पसीने की कमाई से खरबों रुपए लुट जाने की घटनाएं रोकने के लिए हर स्तर पर जवाबदेही निर्धारित होनी चाहिए।
वर्तमान में कमेटी या निदेशक मण्डल द्वारा स्वीकृत ऋणों के डूब जाने पर सामान्यतया कोई भी जिम्मेदार नहीं होता। माथुर ने विभिन्न सवाल उठाते हुए कहा कि ज्यादातर बड़े डिफाल्टर्स इरादतन है और वे लाचार व्यवस्था का लाभ उठाकर धोखाधड़ी करके भी ऐशो आराम की जिन्दगी जी रहे हैं। इसके दुषपरिणाम स्वरूप बैंक अपना घाटा पूरा करने के लिए आम आदमी से आवास, शिक्षा एवं स्वरोजगार ऋण में ज्यादा ब्याज ले रहे हैं तथा जमाओं पर कम ब्याज दे रहे हैं।
लेखक ने ‘बैंक आॅफ पोलमपुर‘ में भारतीय बैंकिंग से जुड़े कई खुलासे किए हैं तथा उन कारणों व स्थितियों का वर्णन किया है जिनसे घोटाले और धोखाधड़ी की घटनाएं जन्म लेती हैं।
यह कहना गलत न होगा कि ‘बैंक आॅफ पोलमपुर‘ महज हास्य व्यंग्य का उपन्यास नहीं होकर भारतीय बैंकिंग की डायग्नोस्टिक रिपोर्ट है। सरकार को इसका अध्ययन कर उपचार के उपाय करने चाहिए। यह सिर्फ बैंकों को ही एक्सपोज नहीं करता बल्कि समूचे तंत्र की व्यथा को बताता है। तंत्र रूपी कुएं में ही भांग घुली हुई है। यही कारण है कि आज देश की युवा प्रतिभाएं पलायन करके विदेशों में जा रही है।