जयपुर। मनुष्य को जन्म के साथ ही प्रकृति कुछ मूलभूत अधिकार प्रदान करती है। यह बात आज युवान लाॅ इंस्टीट्युट में अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस एवं नागरिकता पर आयोजित संगोष्ठी में मुख्य वक्ता माननीय सेवा निवृत जिला एवं सत्र न्यायाधीश अशोक सक्सेना ने कही।
मानवाधिकार की व्याख्या करते हुए उन्होंने बताया कि मानवाधिकार किसी संविधान, किसी विधि, बिल आफ राइट्स या किसी मेग्नाकार्टा ने नहीं प्रदान किए हैं बल्कि ये तो प्रकृति प्रदत्त हैं और भारत में इनका परंपरा से पालन होता आया है।
भारत में बच्चे को जन्म से लेकर शिक्षा, भोजन, बोलने व मत देने का अधिकार संविधान में बिना भेदभाव के है व उससे पहले परम्परा से भी रहा है। ब्रिटिश सरकार ने सावरकर को कारागृह में इन अधिकारों से वंचित रखा था।
इस विषय पर उन्होंने और अधिक प्रकाश डालने के लिए त्रेता युग की राजा जनक की सभा में ऋषि अष्टावक्र का आगमन और उनका राजा जनक के अमात्य का शास्त्रार्थ के लिए चुनौती का उदाहरण दिया कि किस तरह त्रेता युग में भी विचार और अभिव्यक्ति करने का अधिकार था।
उन्होंने संविधान के कुछ माइल स्टोन केस के उदाहरण देकर व उच्चतम न्यायालय के मानवाधिकार संरक्षण हेतु किए गए प्रयासों पर प्रकाश डाला जिसमें उन्होंने एके गोपालन केस, मेनका गांधी केस, खडगसिंह केस, सुनिल बत्रा केस इत्यादि का उदाहरण दिया।
सक्सेना ने नागरिकता संशोधन बिल पर भी चर्चा करते हुए बताया कि किन नागरिकों के मानवाधिकार किस देश में किस प्रकार से होने चाहिए साथ ही युवाओं से अपील की वे नागरिकता व मानवाधिकारों अध्यन कर समाज में सही जानकारी दे और मानवाधिकार के संरक्षण के लिए प्रयासरत रहे और समाज में नए आयाम प्रस्तुत करे।
कार्यक्रम में प्राध्यापक अरुण सिंह, शोध विधार्थी प्रभात कुमार, सुभाष कुमार, सुनीता आदि सहित कई विधि के विद्यार्थी उपस्थित थे। संचालन डा सुरेंद्र जाखड़ ने किया।