सबगुरु न्यूज-सिरोही। 80 के दशक के अंत में ‘अल्बर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है’ फ़िल्म बनी थी। अल्बर्ट पिंटो के गुस्से के सवाल का जवाब मिला हो या न मिला हो लेकिन सिरोही पुलिस के साहेब को गुस्सा क्यों आता है इस सवाल का जवाब मिल चुका है।
पुलिस के इन ‘साहेब’ को इस बात से बहुत गुस्सा आता है कि कोई उनके विभाग की कार्यप्रणाली पर अंगुली उठाये। यदि कोई खबरें करे भी तो उनके महिमामंडन की। साहेब को ‘मार्वल सीरीज’ की ‘एवेंजर्स’ का विंटर सोल्जर ‘कैप्टेन अमेरिका’ की तरह अपराधियों के काल की तरह प्रस्तुत करें। ये बात अलग है कि उनका ध्यान अपराधियों पर नकेल कसने से ज्यादा रिटायरमेंट प्लान पर होने के आरोप विभाग में ही लगते रहते हैं।
सिरोही कोतवाली में 17 मार्च को जो ‘विवादित’ प्रकरण दर्ज हुआ है, उसकी इबारत लिखने वाले हाथ भले ही सिरोही सभापति का हो, लेकिन अपने प्रभाव का इस्तेमाल करके इसमें कलम और कागज पकड़ाकर एफआईआर दर्ज करवाने को प्रोत्साहित करने में इन्हीं साहेब का नाम आ रहा है, इसकी शिकायत मुख्यमंत्री को भेजे ज्ञापन में भी की गई है।
प्रोत्साहन की जितनी शिद्दत साहेब ने ये प्रकरण दर्ज करवाने में दिखाई उतनी शिद्दत वो जिले में पुलिसिंग को सुधारने के लिए मातहतों को प्रोत्साहित करने में लगाते तो ये हालात ही नहीं बनते की कोई सिरोही पुलिस की नकारात्मक खबर कर पाता।
-बेहतर पुलिसिंग होती तो ये हाल न होते
जिस सिरोही कोतवाली पुलिस ने फ्रीलांस पत्रकार पर प्रकरण दर्ज करने में देरी नहीं दिखाई वही सिरोही कोतवाली पुलिस तीन तीन महीने पुराने प्रकरण पर्याप्त सबूत देने के बाद भी दर्ज नहीं कर पाई है। दिसम्बर में पेंडेंसी बढ़ने के नाम पर दर्ज होने से रोकी गई एफआईआर तीन महीने बीतने पर भी नहीं दर्ज किये जाने के आरोप भी कोतवाली पुलिस पर लगते रहे हैं।
हाल में सोशल मीडिया पर एक वीडियो वायरल हुआ। इसमें पीड़ित बता रहा है कि वो अपनी एफआईआर दर्ज करवाने के लिए ‘साहेब’ से भी मिला था, लेकिन मजाल क्या कि ‘साहेब’ ने जिले में ये व्यवस्था लागू करने में रुचि दिखाई हो कि एफआईआर दर्ज नहीं होने को लेकर किसी को उनके पास न आना पड़े। इन प्रकरणो में भी यदि साहेब 17 मार्च के प्रकरण की तरह कोतवाली में दबाव बनाकर इन्हें दर्ज करवाने की शिद्दत दिखाते तो सिरोही पुलिस का इकबाल यूँ ही बुलंद हो जाता।
-बदहाल बीट व्यवस्था का इससे बेहतर उदाहरण नहीं
यूँ तो बहुत से ऐसे मामले हैं जो सिरोही में बदहाल होती पुलिसिंग का उदाहरण है। लेकिन, हाल ही में शिवगंज में एसबीआई बैंक की छत खोदकर लॉकर तोड़ ले जाने का प्रकरण सबसे बड़ा उदाहरण है। चोर छत खोद गए लेकिन, साहब के नेतृत्व में बदहाल हो चुकी पुलिसिंग ने बीट प्रणाली की वो हालत कर दी कि न तो पुलिस का मुखबिर नेटवर्क काम कर रहा है न ही बीट व्यवस्था।
ये हालात हुए क्यों? ये आरोप लगते रहे हैं कि रात्रि में पुलिस की प्राथमिकता जिले में गश्त करने की बजाय सड़कों पर निकलने वाले बजरी के वाहन हो चुके हैं। विभागीय और राजनीतिक हलकों में जो चर्चा है उस पर विश्वास करें तो जिले में बेहतर पोलिसिंग के लिए साहेब की प्राथमिकता कार्मिक कुशलता की बजाय कुछ ‘और’ हो चुकी है।
हालात ये हैं कि साहेब विफलता का ठीकरा मातहतों पर फोड़कर उन्हें तो ठिकाने लगा देते हैं पर इन्हीं मातहतों की सफलता की माला खुद पहनकर इठलाये फिरने में कोई कमी नहीं छोड़ते हैं। सवाल ये है कि मातहतों की सफलता पर साहेब का हक है तो मातहतों की विफलता पर हक जताने से परहेज क्यों?