होली का पर्व धर्म और मजहब से कहीं आगे हमें इश्क-ओ-आशिकी और उल्फ़त-ए-मोहब्बत के धागे में बांधता है। फाग और फगुआ की अपनी-अपनी रिवायत है, होली के दिन फाग-गीत का जादू सर चढ़ कर बोलता था। कुछ वर्षों पहले तक होली की आहट मात्र से फिजां रंगीन हो जाती थी, वहीं समाज होली के रंग में कई दिनाें तक रंगा नजर आता था। हर ओर मस्ती व मदहोशी छा जाती थी, होली की खुमारी के बीच परदेस से लोग वापस अपने घर आने लगते थे। लेकिन अब यह सब बातें पुरानी होती जा रही है।
होली एक ऐसा रंगबिरंगा त्योहार है, जिसे हर धर्म के लोग पूरे उत्साह और मस्ती के साथ मनाते रहे हैं। होली के दिन सभी बैर-भाव भूलकर एक-दूसरे से परस्पर गले मिलते थे। सामाजिक भाईचारे और आपसी प्रेम और मेलजोल का होली का यह त्याेहार भी अब बदलाव का दौर देख रहा है। बुधवार को जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि इस बार वह न तो होली खेलेंगे न ही कोई होली मिलन समारोह में शामिल होंगे, समाज को स्पष्ट संदेश भी देता है कि अब त्योहारों पर भी फिजां के बदलाव का रंग चढ़ने लगा है।
हालांकि पीएम मोदी ने हाेली पर ये बयान दिया है वह भले ही कोरोना वायरस के फैले संक्रमण को लेकर दिया हो लेकिन इतना जरूर है कि समाज आज दो-राहे पर जरूर आकर खड़ा हो गया है। कुछ वर्षों से देश में द्वेष भाव का ऐसा वातावरण बनता जा रहा है कि लोग सामाजिक समरसता, एकरूपता भुलाते जा रहे हैं।
अब होली पर उमंग उल्लास सिमट कर रह गए हैं
पहले की होली और आज की होली में अंतर आ गया है, कुछ साल पहले होली के पर्व को लेकर लोगों को उमंग रहता था, आपस में प्रेम था। किसी के भी प्रति द्वेष भाव नहीं था। आपस में मिल कर लोग प्रेम से होली खेलते थे। होली एक ऐसा रंगबिरंगा त्योहार है, जिस हर धर्म के लोग पूरे उत्साह और मस्ती के साथ मनाते हैं। होली का त्योहार आमतौर पर दो दिनों का होता है। पहले दिन होलिका दहन किया जाता है और उसके अगले दिन रंगोत्सव मनाया जाता है।
होलिका दहन के समय गांव के बड़े बुजुर्ग व बच्चे एकत्र होते थे, वहां ऐसा लोगों पर बच्चे धूल फेंकते थे जो गुस्सा होते थे। जितना ही गुस्सा होते थे उतना ही बच्चे धूल फेंक कर मजा लेते थे। उन दिनों होली पर्व पर फगुआ गाने की परंपरा थी। गांव गांव में फगुआ गीत होता था, आज होली पर्व पर न तो वह उमंग रह गया है न ही वह होली गीत। आज अधिकांश लोग होली के आड़ में पुरानी दुश्मनी निकालते हैं।
पहले होली के पंद्रह दिन पूर्व से ही फगुआ गीत गाने का लोगों में होड़ लग जाती थी, जो फगुआ गाते वह बाहर से छुट्टी लेकर गांव चले आते थे। आज फगुआ गीत नहीं सुनाई देता, तब की होली व अब की होली में बहुत अंतर आ गया है। कुछ वर्षों पहले तक देशभर में होली की धूम रहती थी लेकिन अब इसके रूवरूप में बदलाव आ गया है।
होली पर केवल परंपरा का निर्वहन करना ही दिखाई पड़ता है
अब होली केवल परंपरा का निर्वहन रह गया है। हाल के समय में समाज में आक्रोश और नफरत इस कदर बढ़ गई है कि सभ्रांत परिवार होली के दिन निकलना नहीं चाहते हैं। लोग साल दर साल से जमकर होली मनाते आ रहे हैं। इस पर्व का मकसद कुरीतियों व बुराइयों का दहन कर आपसी भाईचारा को कायम रखना है।
कभी होली पर्व का अपना अलग महत्व था, होलिका दहन पर पूरे परिवार के लोग एक साथ मौजूद रहते थे। और होली के दिन एक दूसरे को रंग लगा व अबीर उड़ा पर्व मनाते थे। लोगों की टोली भांग की मस्ती में फगुआ गीत गाते व घर-घर जाकर होली का प्रेम बांटते थे। अब हालत यह है कि होली के दिन 40 फीसदी आबादी खुद को कमरे में बंद कर लेती है।
हमारा देश त्योहारों और उत्सवों के लिए जाना जाता है
हमारा देश उत्सवों का देश है। इसी कारण पूरे वर्ष भर किसी न किसी उत्सव-त्योहार को मनाने का अनुपम प्रवाह चलता रहता है। हर माह, हर ऋतु किसी न किसी त्योहार के आने का संदेसा लेकर आती है और आए भी क्यों न, हमारे ये त्योहार हमें जीवंत बनाते हैं, ऊर्जा का संचार करते हैं, उदास मनों में आशा जागृत करते हैं। अकेलेपन के बोझ को थोड़ी देर के लिए ही सही, कम करके साथ के सलोने अहसास से परिपूर्ण करते हैं, यह उत्सवधर्मिता ही तो है जो हमारे देश को अन्य की तुलना में एक अलग पहचान, अस्मिता प्रदान करती है। होली पर समाज में बढ़ते द्वेष भावना को कम करने के लिए मानवीय व आधारभूत अनिवार्यता की दृष्टि से देखना होगा।
आज भारत देश मे समस्यायों का अंबार लगा हुआ है। बात सामाजिक असमानता की करें, इसके कारण समाज में आपसी प्रेम, भाईचारा, मानवता, नैतिकता खत्म होती जा रही हैं। और आखिर में चंद लाइनें और बात खत्म, कहीं पड़े न मोहब्बत की मार होली में, अदा से प्रेम करो दिल से प्यार होली में, गले में डाल दो बांहों का हार होली में, उतारो एक बरस का खुमार होली में मिलो गले से गले बार बार होली में।
शंभू नाथ गौतम, वरिष्ठ पत्रकार