सबगुरु न्यूज। आइए आज आपको उत्तराखंड लिए चलते हैं। उत्तराखंड का नाम आते ही यहां के पहाड़ अपने आप ही शीतलता का एहसास देते हैं, हरी-भरी वादियां हमेशा मन को सुकून देती रही हैं। लेकिन आज उत्तराखंड वासियों के लिए एक और खुशी का दिन है। यहां का लोकपर्व ‘हरेला’ धूमधाम के साथ मनाया जा रहा है। भले ही देश में कोरोना का संकट काल चल रहा है। इस महामारी की दहशत उत्तराखंड में भी बनी हुई है। पूरे देशभर से लाखों प्रवासियों के लौटने से आज पहाड़ की माटी खुशहाल नजर आ रही है। ऐसे में हरेला त्योहार अपने लोगों को पाकर फूला नहीं समा रहा है। इस बार वर्षों के बाद इस लोकपर्व को प्रवासियों के साथ स्थानीय लोग भी धूमधाम के साथ बना रहे हैं। यह लोकपर्व उत्तराखंड का आस्था का प्रतीक भी माना जाता है। इस त्योहार को लेकर उत्तराखंड के निवासी कई दिनों पहले ही तैयारी करनी शुरू कर देते हैं।
इस दिन वृक्षारोपण करने की पुरानी परंपरा रही है। ये पर्व किसानों से सीधे जुड़ा है, किसान घरों में ही अनाजों को बोकर अपनी फसल का परीक्षण करता है कि इस बार उनकी खेती कैसी होगी और कितना फायदा होगा। हरेला ऋतु परिवर्तन के साथ भगवान शिव के विवाह की जयंती के रूप में भी मनाया जाता है, जिसे हरकाली पूजन कहते हैं और आज के दिन से ही पहाड़ में मेले उत्सव की शुरुआत भी होती है। कहा जाता है कि इस दिन कोई भी व्यक्ति इस दौरान हरी टहनी भी रोप दे तो वह फलने लगती है। आइए जानते हैं क्या है हरेला पर्व जिसे उत्तराखंड निवासी इतनी धूमधाम के साथ मनाते हैं।
उत्तराखंड में वर्ष में तीन बार मनाया जाता है हरेला लोकपर्व
हरेला एक हिंदू त्योहार है जो मूल रूप से उत्तराखण्ड राज्य के कुमाऊं क्षेत्र में मनाया जाता है। हरेला पर्व वैसे तो वर्ष में तीन बार आता है। चैत्र महीने में पहले दिन बोया जाता है तथा नवमी को काटा जाता है। श्रावण महीने में सावन लगने से नौ दिन पहले आषाढ़ में बोया जाता है और दस दिन बाद श्रावण के प्रथम दिन काटा जाता है। आश्विन महीने में नवरात्र के पहले दिन बोया जाता है और दशहरा के दिन काटा जाता है, लेकिन श्रावण मास में मनाए जाने वाला हरेला सामाजिक रूप से अपना विशेष महत्व रखता है।
दरअसल हरेला पर्व नई ऋतु के शुरू होने का सूचक है, वहीं सावन मास के हरेले का महत्व उत्तराखंड में इसलिए बेहद महत्व है, क्योंकि देव भूमि को देवों के देव महादेव का वास भी कहा जाता है। समूचे कुमाऊं में महत्वपूर्ण त्योहारों में से एक माना जाता है। हरेला वो पर्व है जो पर्यावरण व कृषकों से जुड़ा है। इस पर्व के दौरान 10 दिन पहले घरों में पुड़ा बनाकर पांच या 7 प्रकार के अनाज गेहूं, जौ, मक्का, गहत, सरसों को बोया जाता है, जिसमें जल चढ़ाकर घरों में रोजाना इसकी पूजा की जाती है। किसान भी इस दौरान अपनी खेती की फसल की पैदावार का भी अनुमान लगाते हैं।
इस त्योहार को मनाने के लिए 9 दिन पहले शुरू हो जाती है तैयारी
देव भूमि कहा जाने वाला उत्तराखंड जहां अपने तीर्थ स्थलों के कारण दुनिया भर में प्रसिद्ध है वहीं यहां की संस्कृति में जितनी विविधता दिखाई देती है, शायद कहीं और नहीं है। उत्तराखण्ड को देश में सबसे ज्यादा लोक पर्वो वाला राज्य भी कहा जाता है। इन्हीं में से एक है हरेला त्योहार। हम आपको बता दें कि जैसा हरेला नाम से ही अनुमान लगाया जा सकता है कि यह हरियाली का प्रतीक है। इस त्योहार के आने से उत्तराखंड में हरियाली और भी दिखाई देने लगती है। इस लोक पर्व को लेकर क्या आम क्या खास, सभी की गहरी आस्था भी जुड़ी हुई है।
हरेला शब्द की उत्पत्ति हरियाली से हुई है। हरियाली जीवन और खुशियों का प्रतीक होती है। हरेला के नौ दिन पहले लोग अपने घर के मंदिर में या फिर गांवों के मन्दिर में सात प्रकार के अन्न जैसे जौ, गेहूं, मक्का, गहत, सरसों, उड़द और भट्ट को एक टोकरी में बोते हैं। इससे लिए एक विशेष प्रक्रिया अपनाई जाती है, पहले टोकरी में एक परत मिट्टी की बिछाई जाती है, फिर इसमें बीज डाले जाते हैं। उसके बाद फिर से मिट्टी डाली जाती है, फिर से बीज डाले जाते हैं, यही प्रक्रिया पांच-छह बार अपनाई जाती है।
शंभू नाथ गौतम, वरिष्ठ पत्रकार